पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/७९७

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ग्रन्थवली ]

विशेक्ष--(१)वाह्याचार का विरोध व्यक्त है ।
 (२)'कोरी' शब्द मे व्यजना है । जुलाहो को तुच्छ समभुने वाले सवणं वर्ग से कबीर कहते है कि जिस समुदाय को तुम तुच्छ समभुने हो , उसी 'कोली' वर्ग मे उत्पत्र कबीर तुम्हारे सम्भुख एक महान सत्य को प्रकट कर रहा है ।
                 (३४९)

पाणी थै प्रगत मई चतुराई,

  गुर प्रसादि पारम निधि पाई॥ टके॥

इस पांणी पाणी कू धोवै,इस पांणी पांणीइ कूं मोहै॥ पांणी ऊंचा पांणी नोचा, ता पांणी का लीजै सीचा ॥ इक पांणी थै प्यंड उपाया,दास कबीर रांम गुण गया ॥ शब्दार्थ--पाणी==जल , लक्षण से प्रभु,भगवान को नारायण कहते हैं(नार=जल)।चतुराई=ज्ञान । प्यद=शरीर । उपाया=उत्पत्र किया । संदर्भ-कबीरदास प्रभु की महिमा का वर्णन करते है । भावार्थ--प्रभु रूप जल से ही ससार का समस्थ ज्ञान उत्पत्र हुआ है। इस परम ज्ञान रूपी खजाने को मैंने गुरु की कृपा से प्राप्त किया है । भक्ति रूपी जल विषय-वसना रूपी जल के मैल को नष्ट कर देता है, माया रूपी जल जीवात्मा रूपी जल को मोहित करता है । जल ही ऊपर है,जल ही नीचे है। अथवा ज्ञांन रूप होकर जल ही व्यक्ति को उच्च पद प्रदान करता है और माया रूप होकर वही जल व्यक्ति को पातन के गन्त मे गिरा देता है । इसी सर्यव्यापी परम तत्व रुपी जल के द्वारा अपने अन्त करण को अभिसिचित करना चाहिए। पनी (वीर्य) की एक वू द मात्र से इस शरीर की उत्पत्ति होती है। इस प्रकार जल की महिमा को सतभ करके कबीर जल रूप प्रभु का गुणगान करता है।

   अलकार-यमक-एक ही श्ब्द 'पाणी' को विभित्र प्रतिकार्य होने के करण ।
                        (३४५)

भजि गोब्यदा भूलि जिनि जाहु,

  मनिसा जनम कौ एही लाहु॥टेक॥

गुर सेवा करि अगति कमाई, जौ तै मनिषा देही पाई ॥ या देही कूँ लौचै देवा, सो देही करि हरि की सेवा ॥ जब लग जुरा रोग नही आया, तब लग काल ग्रसै नहिं काया॥ जब लग होण पडै नही बांणी,तब लग भजि मन मारगपांणी ॥ अब नहिं भजसि भजसि कब भाई,आवैगा अत भज्यौ नहीं जाई॥ जे कछु करौ सोई तत सार,फिरि पछितावोगे बार न पार