पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/८०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
गुरुदेव को अंग]
[६९
 

प्रयुक्त हुआ है। (४) 'मेल्ह्या' का अर्थ है फेंका। शब्द वाण फेंका और शिष्य के मन को गति विहीन कर दिया। (५) 'भीतर' से तात्पर्य है 'हृदय' अन्तस या मर्म। (६) हथियार—शब्द वाण।

शब्दार्थ—भिद्या—भिदा = भेदा = भेद गया। उनमनी = उन्मनी।

गूंगा हुवा बावला, बहरा हुआ कान।
पाऊँ मैं पंगुल भया, सतगुर मार्या बाण॥१०॥

सन्दर्भ—"सतगुरु कै हथियारि" कुछ ऐसा "भीतर भिद्या" कि शिष्य का चंचल मन तो पंगु हो ही गया, साथ ही वह उस अवस्था को भी पहुँच गया जिसे "उनमनी" कहा गया है। इतना ही नहीं इस "हथियारि" का ऐसा अद्भुत एवं अकथनीय प्रभाव पड़ा है कि शिष्य की इन्द्रियाँ भी निश्चेष्ट एवं चेतना विहीन हो गई है।

भावार्थ—सतगुरु ने ऐसा शब्द वाण मारा है कि शिष्य गूंगा, बावला बधिर एव पंगू हो गया।

विशेष—प्रस्तुत साखी में कवि ने रहस्यवादी की उस स्थिति का वर्णन किया है, जिसमें उसकी विभिन्न इन्द्रियों सर्व कार्य को विसर जाती हैं और वे निश्चेष्ट हो जाती है। ज्ञान की ज्योति सम्प्राप्त हो जाने पर, ब्रह्म की अनुभूति परिपूरित हो जाने पर साधक की इन्द्रियाँ लौकिक आनन्द तथा सांसारिक सुखों की ओर से विमुख हो जाती हैं। इस उच्चतम स्थिति पर पहुँचने के अनन्तर उसकी वाक् शक्ति या अभिव्यंजना शक्ति मौन हो गयी, उसकी कर्णेन्द्रिय शब्द ग्रहण की प्रक्रिया को भूल गई और उसे पग पंगुल हो गए। अब वह बावला-सा प्रतीत होने लगा। उसकी मनःस्थिति कुछ ऐसी हो गई कि वह जीवन और संसार से उदासीन ही नहीं पूर्णतया विमुख हो गया। संसार जिसे सुख, जिसे वैभव तथा जिसे महत्व करता है, यह उसे निःसार प्रतीत होने और उनके इस दृष्टिकोण को देख कर सांसारिक उसे बावला समझने लगा। वस्तुतः वही ज्ञानी और तत्व वेत्ता है।

शब्दार्थ—हुआ = हुवा। पंगुल = पंगु—गतिविहीन।

पीछे लागा जाइ था, लोक वेद के साथि।
आगैं थैं सतगुर मिल्या, दीपक दीया हाथि॥११॥

सन्दर्भ—लोकानुमोदित मार्ग पर चलते हुए सांसारिकों का अनुसरण करना जीवन का लक्ष्य था। परन्तु सतगुरु की महती कृपा हुई। उसने मात्र दीपक हाथ में दिया और उचित मार्ग या नरवाण का मार्ग उपलब्ध हो गया।