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ग्रन्थावली ] [ ७६६

              (iv) चपलतिश्योक्ति की व्यजना - जन जाग्या    रीते ।
              (v)   उपमा-- विप से   पुराण ।
              (vi) रूपक -- राम रतन ।
       विशेष --(1)विष पुराण -- वेद-पुराण इत्यादि ज्ञान प्राप्ति के साधन 
  मात्र हैं । सिद्धावस्था मे उनकी निरर्थकता स्व्य सिद्ध है । इस कथन के ऊपर अविद्यावत् विषयाणि  सर्वशास्त्राणि का प्रभाव स्पष्ट है ।
             (11) अन्तिम पक्ति मे 'सोवौं' का पाठान्तर 'सोबी' है । अर्थ होगा - अब सोना नही है अर्थत् अब तुम मत 
    सॊओ । यह अर्थ भी सगत एव प्रसगानुकूल है ।
            (111)समभाव के लिए देखें --
               अब लौ नसानी ,अब न  नसैहौं । 
                            ×                 ×
               पायौ नाम चारु चिंतामनि , डट कर ते न खसैहौं ।
                                                      ( गोस्वमी तुलसीदास )
                                 (३५३)
 सतनि एक अहेरा लाधा ,
       मिर्गनि खेत सबनि का खाधा ॥ टॆक ॥
या जगल मै पांचौ मृगा , एई खेत सबनि का चरिगा ॥

पारधीपनौं जे साधै कोई, अध खाधा सा राखै सोइ ॥ कहै कबीर जो पचौ मारै , आप तिरै और कू तारै ॥ शब्दार्थ -- अहेरा == शिकार । लाधा = प्राप्त किया । मिर्गनि = मृगो ने खाधा= खा डाला । पारधीपना= शिकारीपना ।

 सन्दर्भ -- कबीर का कहना है कि इन्द्रियो को वश मे करने वाला भवसागर के पार जा सकता है । 

भावार्थ -- सतो को एक शिकार प्राप्त होगई है । मृगो (काम-कोधादि अथवा पाँचो इन्द्रियो के विषयो ) ने सब लोगो के जीवन-रूपी खेत चर डाले है । इस ससार रूपी जगल मे पाँच मृग( उपयुंक्त अनुसार ) हैं । इन्होने ही समस्त प्राणियो के जीवन-रूपी खेतो को चर लिया है । जो कोइ व्यक्ति इन मृगो को मारने के लिये शिकारीपना धारण करते है ,वह इन मृगो के आधे खाए हुए जीवन-रुप खेत की रक्षा कर लेता है । कबीर कहते हैं कि जो पाँचो इन्द्रियो के विषयो को समाप्त कर देता है , वह सवय ही भवसागर के पार हो जाता है और अन्य लोगो को भी पार करा देता है ।

 अलंकार - (1) रूपकातिशयोक्ति - मृग खेत ।
        (11) नागरूपक -- खेत और जीवन के रूपक क निर्वाह है ।
विशेष - (1)पारघीपनौं जे साधे -- विषयासक्ति पर नियन्त्रण  के अनुपात मे ही साधक का कल्याण होता है ।