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ग्रन्थावली]
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ग्रन्थावली ] की जाती है| इन्हे छछिहारी कहने का कारण यह है कि कायायोग मे तत्वरुप महारस की प्राप्ति नही हो पाती है|वह चैतन्य के साक्षात्कार का विषय है,परन्तु इतना रस तो मिल ही जाता है,जितनी स्निग्वता मठे मे होती है। अभिप्रेत यह है कि इस महारस के स्पर्श से तीनो नाडियाँ स्निग्ध एव पातिल साधना रस से आप्लावित अवश्य हो जाती हैं।

   (v)इस पद मे ज्ञान एव भक्ति के महारम की प्राप्ति का वर्णन है। इस महारस की साधना मे कायायोग की सिद्धि तथा तृप्ति भी स्वयमेव हो ही जाती है।इसके साथ ही भक्ति का पर्यवसान अद्वैतावस्था अभेद बुद्धि मे होता है। यह मटकी फूटी ज्योति क समानी कथन द्वारा प्रकट है।
   (vi)इसमे ज्ञान और भक्ति की अभिन्नता प्रकट है।
   (vii)कबीर ने आत्मा को गूजरी इसलिए कहा है कि अहीर और गूजर जाति का मुख्य व्यवसाय गाय-भैस पालकर दूध-घी का व्यापार करना है।
                 (३५५)
  आसण पवन कियै दिढ रहु रे,
         मन का मैल छाडि दै बौरे॥टेक॥
  क्या सींगी मुद्रा चमकांये,क्या विभूति सब अगि लगायें॥
  सो हिंदू सो मुसलमांन,जिसका दुरस रहै ईमांन॥
  सो ब्रह्मा जो कथै ब्रह्मा गियांन, काजी सो जांनै रहिमांन॥
  कहै कबीर कछू आंन न कीजै रांम नांम जपि लाहा लीजै॥

श्ब्दार्थ- आसन=योग के अष्टाग साधनो मे एक। पवन=प्राणायम।दिढ=हढ। वौरे=वावले। सोगी=श्रृगी,योगियो द्वारा धारण किये जाने वाला उपकरण विशेष । मुद्रा=योगियो का एक आभुषण। दुरपद=दुरुस्त, ठीक, हढ। काजी=मुसलमान न्यायाधीश जो शरा के अनुसार मामलो का निणय करे। रहिमान=दयालु प्रभु। आन=अन्य साधना।लाहा=लाभ,जीवन का लाभ।

  सदंर्भ= कबीर राम नाम की महिमा का प्रनिपादन करते है।
  भावार्थ=हे पागल जीव,पवन रुपी आमन पर हढतापूवंक स्थित रहो अर्थात तू समघिस्थ होकर प्राणायाम को हढ साधना करो और मन का कलुप दूर करलो। सोगी,मुद्रा आदि बाहरी उपकरणो के सजाने से तथा शरीर पर भस्म लगाने से क्या होता है?सच्चा हिन्दू और सच्चा मुसलमान वही है,जिसका ईमान ठीक ठिकाने वना रहता है अर्थात जो प्रलोभनो द्वारा विचलित नही होता है। वही ब्राह्मण है जो व्रह्मज्ञान की बात करता है। वही काजी(घम और न्याय का ज्ञाता) वही है जो भगवान के दयालु स्वरुप को पहचानता है अर्थात् जो प्रत्येक मामले पर सहानुभूतिपूर्वक विचार करता है।कबीर कहते है कि और कुछ भी मत करो,केवल राम के नाम की जप  करके जीवन का लाभ प्राप्त करो अर्थात् जीवन को सार्थक बनाओ।