पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/८०७

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ग्रन्थावली

वह सर्वथा उपयुक्त एव सगत है। कबीर वस्तुत ऐसे कुल मे उत्पन्न हुए थे जहा वेदाध्ययन कोसो नही दिखाई देता है। इसी कारण वह वेदो द्वारा प्र्तिपादित धर्म-तत्व का साक्षात्कार नही कर पाए। वह स्थूल रुप के परे पदार्थ के सूक्ष्मरुप का चिन्तन करने का अवसर ही न पा सके थे।
       (११)जीवन गगा-कबीर के इस कथन पर सम्भवत इस प्रकार की लोकोक्तियो का प्रभाव है-
        "मरे बबा की बडी-बडी अखिया" अथवा "जियत वाप से लट्ट्मलट्टा। मरे बाप की सिट्ट्म सिट्टा।"
                            (३५७)
          बाप रांम सूनि बीनती मेरी,
                  तुम्ह सूं प्रगट लोगनि सू चोरी॥ टेक॥
          पहले काँम मुगध मति कीया, ता भै कपै मेरा जीया॥
          रांम राइ मेरा कह्या सुनीजै, पहले बकसि अब लेखा लीजै॥
          कहै कबीर बाप रांम राया, अबहू सरनि तुम्हारी आया॥
          शब्दार्थ-मुगध  मति-मोहित बुध्दि । बकस-क्षमा ।लेखा -व्योरा,हिसाब।
     संदर्भ-कबीर भगवान से अपने कृत्यो के लिए क्षमा याचना करते है।
     भावार्थ-हे पीता राम, मेरी प्रार्थना सुन लीजिए। मै अन्य लोगो से तो अपने अपराधो को छिपाता हूँं, परन्तु तुम्हारे सम्मुख वे प्रकट हैं। पहले काम ने मेरी बुद्धि को मोहित कर रखा था, और मैने मूर्खता के कार्य किए। इसी कारण आपके सामने आते हुए मेरा ह्रदय कापता है (मुझे डर लगता है)। हे राजा राम आप मेरी विनती सुन लीजिए। पहले आप मेरे अपराधो को क्षमा कर दें और उसके बाद मेरे द्वारा किए गए कर्मो का हिसाब-किताब लगाइए। अब तो आपकी शरण मे आ गया हूँ।
         अलकार-श्लेष-काम मुगधमति।
         विशेष-(१)दैन्य की मार्मिक व्यजना है।
           (११)प्रपत्ति एवं शरणागति की सहज भाव से अभिव्यक्ति है।
           (१११)'बाद' मे ग्राम्यत्व वोष है।
                             (३५८)
           अजहूं बीच कैसे दरसन तोरा,
                  विन दरसन मन मांनै क्यूं मोरा॥टेक॥
           हमहि कुसेवग क्या तुम्हहि अजांनां, दुह मैं दौस कहौ किन रांमां॥
           तुम्ह कहियत त्रिभवन पति राजा, मन बछित सब पुरवन काजा॥
           कहै कबीर हरि दरस दिखावौ, हम हि बुलावौ कै तुम्ह चलि आवौ॥