पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/८०९

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ग्रन्थावली ]

सन्दर्भ-कबीर हठयोगी साधना का वर्णन करते हें। भवार्थ-रे भाई,इस कठिन शरीर रुपी किले पर किस प्रकार विजय प्राप्त की जाए? इसको दो दीवालें तीन खाइयाँ घेरे हुए है। दो दीवाल और तीन खाई का अर्थ पच कोप भी हो सकता है ओर "द्वैत भाव एव तीन गुण भी" हो सकता है। इस प्रकार यह पाँच आवरण वाला किला है। इसके काम रुपी किवाड है,सुख-दुख ही पहरेदार हैं तथा पाप और पुण्य इसके दरवाजे है। क्रोध यहा का प्रधान है और लोभ अपनी तृप्ति के लिए बहुत संघर्ष करता रहता है। मन रुपी नायक ही इस शरीर-रुपी दुर्ग का राजा है। इन्द्रिय-स्वाद ही इस किले के राजा क कवच है। इसने ममता का शिरस्त्राण पहन रखा है।मन-रुपी रजा ने कुवुध्दि का धनुष चढा रखा है। इसके शरीर रुपी तरकश मे तृष्णा के तीर भर रहे हैं और इस किले मे ढूढने पर भी सुवुध्दि नही मिलती है। इस दुर्ग को जीतने का उपाय यह है कि सुरति रुपी तोप की नाल मे ईश्वर प्रेम का पलीता से ज्ञानाग्नि लगाकर मैंने आत्म-वोध का गोला चलाया और इस प्रकार "ब्र्म्हाग्नि लेकर मैंने इस किले मे पलीता लगाया और एक ही प्रहार से इस किले को ढा दिय (गिरा दिया)सत्य-निष्ठा एव सतोष की सेना को लेकर जव मै लडने लगा,तब मैंने किले के दसो द्वार(नवद्वार शरीर के तथा ब्रम्हारन्ध्र)तोड डाले अर्थात् शारीरिक सीमाएँ समाप्त होकर अत्म-चेतना का विश्व चेतना मे लय हो गाया। साधु-संगति और गुरु की कृपा के सहारे मैंने अह्कारी दुर्गपति मन को अपने वश मे काल का बन्धन भी तोड दिया। भगवान के दास कबीर ने इस शरीर-रुपी गढ पर आक्रमण किया और अविनाशी भगवान ने उसको इसका राज्य दे दिया अर्थात् अमर पद प्रदान कर दिया।

 अलंकार-(१)रुपकातिशयोक्ति-गढ ।
        (२)सागरुपक-सम्पूर्ण पद । शरीर और गढ के रुपक की निर्वाह है ।
        (३)छेकानुप्रास की छटा-काम किवाड,पाप-पुनि,मर मँवासी,स्वाद सनाह,कुबुधि कमाण ।त्रिसिना तीर ।प्रेम पलीता,गोला ग्यान,सत सतोष,दस दरवाज़ा,साध संगति,भगवत भीर,सकति सुमिरण,कटि काल।
   विशेष--(१)विपयी जीयन और ज्ञान एव भक्ति सावना का जीवन--दोनो का एक वर्णन किया गया है।
         (२)काम-किवाड़--इस शरीर की वृत्तियो एव विपयो के प्रति आकपंण दोनो हि इच्छा द्वारा नियत्रित होते हैं । इसी से "काम" को किवाड कहा है ।
         (३)दुख-सुख दरबनी--वृत्तियो एव दुखात्मक होती हैं । सुख दुख के आदेश से ही वृत्तियो के याने-जाने की कल्पना की गैई है ।