पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/८११

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ग्रन्थावली ] आ गए हैं । यह शरीर कच्ची मिट्टि के वर्तन (करुए) के समान है। इसमे जीवन रूपी पानी अधिक समय तक नही टिक पाता है । बोध रूप हस के निकल जाने पर यह शरीर रूपी कमल कुम्हला कर नष्ट हो जाता है जीवात्मा यह सब कुछ समभती हुई कहती है कि प्रिय समागम मे सम्भाव्य कष्ट की कल्पना करके मेरा मन भय के कारण थर-थर काँपता है कि मिलने पर प्रियतम न मालूम मेरी क्या दुर्दशा करेगा ? परन्तु इतने पर भी मेरा मन प्रियतम के दर्शनो के लिए उत्सुक है। उनके आगमन की प्रतीक्षा मे कोए उडाते-उडाते मेरी वाँहो मे दर्द होने लगा है। परन्तु प्रियतम अभी तक नही आए है। कबीरदास कहते है कि इस प्रकार जीवात्मा की कथा समाप्त होती है कि वह परमात्मा से मिलना तो चाहती है परन्तु मिलन के लिए साघना करना चाहती है।

       अलंकार—(१) रूपकातिशयोक्ति—रैनि,दिन,भवर,वग,क•बै,हस।
              (२) पुनरुक्ति प्रकाश—थर थर।
              (३) श्लेष पुष्ठ रूपक—पानी।
      विशेष—(१) 'करूवा उडावत'—यह एक लोक प्रचलित परम्परा हे कि नारियाँ कौआ उडा कर अपने प्रियजन के आगमन के शकुन का विचार करती है। 
       (२) रहस्यवाद की मार्मिक व्यंजना है।
       (३) सरल रूपको द्वारा हृदय स्पर्शी भाव-व्यजना की गई है। ऐसे पद कबीर के उत्कृष्ट के प्रमाण है,
       (४) कामासक्ति के इस भक्ति-पद मे भक्त्ति-भावना एव लौकिक प्रेम दोनो की रसावस्था की अनुभूति है।
       (५) इस पद मे मान्य साधक जीवन के कमिक विकास तथा उसके पारस्परिक समन्वय की सुन्दर व्यजना है।

इसमे साघना के जीवन का पूरा लोकाखोखा भी है। अभिप्रेत यह है कि साधक प्राय पूरी निष्ठा एव तत्परता के साथ साधना मे रत नही होते हैं। वे 'कौवा' ही उडाते रहते हैं और उनका जीवन समाप्त हो जाता है। यदि अंतिम पक्ति का यह अर्थ किया जाए कि के प्रभु। आप की प्रतीक्षा करते-करते मैं तो थक गई हूँ,।अब मैं मनणासन्न हूँ, शीघ्र ही दर्शन दे दो, तब यह कथन एक भक्त का कथन हो जाएगा और इसमे सूफी पद्धति कि विरह-व्यजना मानी जाएगी। इस प्रकार इस पद मे हमको ज्ञान,भक्ति और रहस्यवाद तीनो का सुन्दर समन्वय दिखाई देता है।

                            (३६१)
    काहे कूँ भीति बनाऊ टाटी,
        काजानूं कहा परिहै माटी॥ टेक ॥
    काहे कू मदिर महल चिणाऊं,मू वा पीछै घड़ी एक रहण न पाऊ॥
    काहे कू छाऊ ऊंच उंचेरा, साढ़े तीनि हाथ घर मेरा॥
    कहै कबीर नर गरब न कीजै, जेता तन तेती भु इ लीजै॥