पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/८१४

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हो जाएँगे।जब तक अन्त: करण मे द्वैत की भावना है,भेद-बुद्धि है,तब तक शरीर स्थित मन्दिर,जिसमे प्रभु का वास है,का रहस्य प्राप्त नही किया जा सकता है।कबीरदास कहते हैं कि राम मे रमण करते हुए मन पर राम के अनुराग का रंग चढ़ जाता है और अन्त:करण निर्मल हो जाता है।

    अलंकार--(1)पुनरुक्ति प्रकाश--बार बार।
           (11)रूपक-काया थभ। अनहद बेन। हिरदा कवल।
           (111)छेकानुप्रास--गुण गावै,गुर गमि;अखंड अहनिसि;सोमवार ससि।मन        मतिवाला।
           (1V)वृत्यानुप्रास--रमिता राम रंग।
           (V1)रूपकातिशयोक्ति--ससि,दुवार,दोऊ । महलि ।
           (V11)चपलातिशयोक्ति--चाखत•••निसतरॅ।
   
     विशेष-- (१)ये समस्त मान्यताएँ योगियों में प्रचलित हैं जो अद्यतन किसी न किसी रूप में कबीर पथियो मे भी मानी जाती हैं ।
            (२)जिनि वाहिर जाइ - कबीर संसार छोड़ने की बात नही कहते हैं । उनका तो निशिचित मन था कि अपने कर्त्तव्यों का निर्वाह करते हुए ही सच्ची भक्ति हो सकती है । वह स्वयं जुलाहे का व्यवसाय करते थे ।
            (३)अनहद बेन - देखे टिप्पणी पद संख्या १५७ ।
            (४)ससि -देखे टिप्पणी पद संख्या ४,७,२१० ।
            (५)त्रिकुटी-देखे टिप्पणी पद संख्या ३,४ ।
            (६)त्रिकुटी संगम-देखें टिप्पणी पद संख्या ७ ।
            (७)सहज - देखें टिप्पणी पद संख्या १५५ ।
            (८)बहार भीतर - प्रकाश....बाह्य दृष्टि द्वारा सत्यासत्य का विवेक होता है तथा अन्त दृष्टि द्वारा सत्य की अनुभूति होती है । गोस्वामी तुलसीदास ने भी लिखा है कि-
             राम नाम मणि दीप घरि जीह देहरी द्वार ।
             तुलसी भीतर बाहिरेहु जो चाहसि उजियार ।
                         (३६३)
             रांम भजै सो जानैये, जाके आतुर नांहीं ।
             सत संतोष लीयै रहै,धीरज मन मांहीं ।।
             जन को कौम क्रोध व्यापै नही, त्रिष्णां न जरावै ।
             प्रफुलित आनंद में , गोव्यंद गुंण गावै ।
             जन कौ पर निंधा भावै नहीं ,अरु असति न भाषै ।
             काल कलपनां मेटि करि,चरनूं चित्त राखै ।
             जन सम द्रिष्टी सीतल सदा ,दुविधा नही आनै ।
             कहै कबीर ता दास सूं मेरा मन मानै ।७