पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/८१७

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ग्रंथावली ] तोनि बेर पतियारा लोन्हा , मन कठोर अजहूँ न पतीनां ॥ कहै कबीर हमारै गोब्यंद , चौथे पद ले जन का ज्यद ॥ श्ब्दार्था-जोर=शक्ति । हस्तौ = हाथी । साटी = डंडा,कोडा । धालों= डालता हूँ ।पोट = पोटला , गठरी । कुजर = हाथी । पतीना = विश्वास किया । जिंद = जीव । चौथे पद = सायुज्य मुक्ति। संदर्भ - कबीरदास प्रभु की महिमा का वर्णन करतै है। भावार्य - अहो मेरे गोविंद भगवान , शक्ति की महिमा अपार है । काजी ने बकवास कि इसे हाथी सै मरवा दो । मेरे हाथो को अच्छी तरह बांध कर हाथी के सामने डाल दिया गया । हाथी ने त्रोध करके सिर पर प्रहार किया । वह चीख मारकर स्वय ही भागा । मैं भगवान के उस स्वरूप की बलिहारी जाता हूँ जिसने हाथी को ऐसी प्रेरणा प्रदान की । काजी ने कहा रे महवस् , मैं तुमको कोडे लगवा दूंगा और इस हाथी को मरवा दूंगा तथा कटवा डालूँगा । परन्तु हाथी ने मुझ्को नही मारा । वह भगवान का ध्यान धारण किए हुए था । उसके हृदय मे तो भगवान बसे हूए थे ।"कबीर बोलते हैं की सन्त कबीर ने क्या अपराध किया था, उस्की पोटली बनाकर उसे हाथी के समक्ष डाल दीया गया । भगवान ने हाथी को ज्ञान प्रदान किया । वह उठ गठरी (शरीर के वघे हुए शरीर) को बार बार प्रणाम करने लगा , परन्तू उस मूर्ख काजी की समभ्क मे अभी भी नही आया । उसने इसी प्रकार तीन बार हाथी को आज माया । परन्तु उस निष्ठुर हृरय (जड हृदय) वाले काजी के मन मे फिर भी भगवान के प्रति विशवास जाग्रत नही हुआ । कबीर कहते हैं मेरे गोविन्द स्वामी इस भक्त जीव को चौथे पद (सायुज्य मुक्ति) कर लीजिए ।