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गुरुदेव को अंग]
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भावार्थ—गोविन्द की कृपा से मुझे ग्यान के आलोकित या प्रकाशित गुरु मिला। ऐसा सतगुरु अविस्मरणीय है।

विशेष—कबीर का यदि यह विश्वास है कि "गुरु गोविन्द दोऊ खड़े काके लागूं पाँय। बलिहारी गुरु आपने जिन गोविन्द दियो बताय," "तो वही कबीर यह भी रखते हैं कि" "जब गोविन्द कृपा करी, तब गुर मिलिया आइ। कबीर को इस बात की प्रसन्नता है कि उसका गुरु ग्यान से पूर्ण और ईश्वर की कृपा से प्राप्त हुआ है।

शब्दार्थ—प्रकास्या = प्रकासा = प्रकाशा = प्रकाशित। गुर = गुरु। मिल्या = मिला। जिनि = जिन। मत = नहीं। बीसरि = बीसरा = बिसरा = भूला। मिलिया = मिला।

कबीर गुर गरवा मिल्या, रलि गया आटै लूण।
'जाति पाँति कुल सब मिटे, नाँव धरौगे कौंण॥१४॥

संदर्भ—ज्ञान के आलोक से प्रकाशित गुरु मिला। वह गुरु न केवल ज्ञान से सम्पन्न है, वरन् वह गौरव से मुक्त तथा महानात्मा भी है। गुरु के महान व्यक्तित्व से शिष्य अभिभूत हो गया और उसी में समा गया। ज्ञान से आलोकित गुरु के प्रभाव से शिष्य भी ज्ञान सम्पन्न हो गया और उसका जाति, वर्ण, कुल की सब भावना विलीन हो गई। वह शुद्धात्मा के रूप में विचरण करने लगा।

भावार्थ—कबीर कहते हैं गौरवमय तथा गम्भीर गुरु मिला। गुरु ने अपने व्यक्तित्व में मुझे एकाकर लिया। मैं उससे मिलकर उसी प्रकार अभिन्न हो गया, यथा आटा एवं नमक मिलकर अभिन्न हो जाता है। इस प्रकार सतगुरु के व्यक्तित्व में एकाकार हो जाने की अनन्तर जाति, कुल और नाम की सकरी सीमाएँ विनष्ट हो गई और मैं विशुद्धात्मा हो गयी। ऐसी शुद्धात्मा का क्या नामकरण होगा?

विशेष—आटै-लूण मे तात्पर्य है यथा आटा में मिलकर नमक एकाकार हो जाता है। उसी प्रकार सतगुरु की महानात्मा से मिलकर शिष्य की आत्मा एकाकार हो गई। (२) "गुरगरवा" से तात्पर्य है कि ज्ञान के गौरव मे पूर्ण और गम्भीर (३) जाति... कौंण से तात्पर्य है सांसारिक एवं सामाजिक मान्यताएँ एवं प्रतिबिम्ब एवं विनष्ट हो गये। शिष्य शुद्धात्मा हो गया। (४) नाव... कौंण से तात्पर्य है कि अब शिष्य अनाम, अजात, अवर्ण और अभेद हो गया।

शब्दार्थ—लूण = लीन-नमक। गरवा गरजा—गम्भीर। ताष = नाम। कौंण = कौन।