पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/८२३

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ग्रन्थावली )

   अल्ंकार-(१)साग रुपक  पूरा पद ।
          (२)रुपकातिशयोक्ति-सुहागिन ।
         (३)उपमा- विष( के समान )। जैसे डाइनि ।
         (४)विशेपोक्ति की व्यजना -खसम मरै वा नारि न रोवै ।
  विशेष -(१) शात्त्क के प्रति विरोध प्रकट है । 

(२)वाहिर टरी -पिटी । ठीक ही है - भागती फिरती थी दुनिया जब तलव करते थे हम । अब जो नफरत हमने की, वह खुद-वखुद आने को है ।

           (३७१ )

परोसनि म्ंगै कंत हमारा , पीव क्यू बौरी मिलहि उधारा ॥ टेक॥ मासा मंगै रती न देऊ ,घटे मेरा प्रेम तौ कासनि लेऊं ॥ राखि परोसनि लरिका मोरा, जे कछु पाऊं सु आधा तोरा ॥ बन बन ढूढौं नैन भरि जोऊं,पीव मिलै तौ बिलखि करि रोऊं ॥ कहै कबीर यहु सहज हमारा ,बिरली सुहागनि कंत पियारा ॥ शब्दार्थ -परोसनि-अन्य सासारिक आत्मा ,माया । कत=पति,परमात्मा । वौरी= पागल । कासनि-किससे । पुन्न=विवेक । सन्दर्भ-कबीर का कहना है कि राम के प्रति सच्चा अनुराग किसी किसी को ही होता है । वह भक्त ज्ञानी एक साधक जीवात्मा के रुप मे अपनी सहजानुभूति को व्यक्त करते हैं । भावार्थ-माया रुपी हे पडौसनि ,तुम मुक्भसे मेरा परमात्मा रुपी पति माँग रही हो ? पर, हे पगली ,पति कही उधार मिलता है ?(परमात्मा की प्राप्ति स्यय साधना करने पर होती है ।सिद्धि उधार अथवा किराए पर मिलने वाली वस्तु नही है ।) तुम माशा भर माँगो ,मैं रत्ती भर भी नही दूँगी । यदि उधार देने के कारण अथवा यो ही दे देने के कारण ,परमात्मा के प्रति मेरे प्रेम मे कमी आ गई है ,तो फिर उसकी पूर्ति मैं कहां से करुंगी ? हे मेरी आत्मा रुपी पडौसिन ,तू मेरे कर्म -वन्धन रुप पुन्न की रखवाली कर । ऐसा करने पर परमेशवर रुपि पति से मुभ्के जो आन्न्द-भक्ति की प्राप्ति होगी ,उसमे से आधा तुम्को दे दूँगी । मैं वन-वन अर्थात विभिन्न साधनाओं मे अपने पति को ढ् ढ रही हूँ ओर नेत्रो की शक्ति भर उसको चारो ओर देखती फिरती है ओर प्रियतम के दर्शन होने पर प्रेमातिरेक के कारण फूट फूट कर रोती हैं । कबीर कहते हैं कि अपने परमात्मा रुपि पति से प्रेम करना जीवात्मा रुपि पत्नी का सहज स्वभाव है । परन्तु फिर भी विरली आत्मा रुपी सौभाग्यवती नारी को अपने परमात्मा रुपी पति से वास्ताविक प्रेम होता है ।