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[ कबीर
चालि चालि मन माहरा, पुर पटण गहिये । मिलिये त्रिभुवन नाथ सू, निरभै होइ रहिये ॥ अमर नहीं संसार मै, बिनसै नर देही । कहै कबीर बेसास सूं, भजि रांम सनेही ॥ शब्दार्थ--औघट=अवघट, दुर्गम। प्रजलै=सताते है। पेडा पडै=डकैती पडती है। जमदानी=यमराज की सेना। माहरा=कुशल। बेसास=विश्वास। सन्दर्भ--कबीरदास कहते है कि जीवन रूपी जंगल को पार करने के लिए राम-नाम ही एकमात्र अवलम्बन है। भावार्थ--साधनाहीन जीवन व्यतीत करना इतना ही कठिन एवं भयप्रद है जितना किसी बीहड स्थान पर रात्रि व्यतीत करना अथवा किसी दुर्गम घाट पर किसी नदी मे स्नान करना। इस जीवन के जंगल मे हिंसा, विषय-लोलुपता एव अहकार् रूपी सिंह, बघ और हाथी घूमते रहते है। साथ ही यह जीवन मार्ग बहुत लम्बा भी है। इस जीवन के जगल मे कामादिक द्वारा रात दिन डकैती पडती रहती है (विशय विकार प्रतीक्षण हमारे चैतन्य स्वरूप को तिरोहित करते रहते है। यहाँ यमराज की सेना हमारी आयु-रूपी सम्पत्ति को सदैव क्षीण करती रहती है। जो शूरवीर धैर्यवान एवं सत्यनिष्ठ है, वे ही इस लूट मार से बच पाते है। अतः हे कुशल मन, तू साधना के मार्ग पर निरन्तर अग्रसर होता रहे और ज्ञान-भक्ति के नगर मे पहुँच जा। वहाँ त्रिभुवन नाथ से मिलेंगे और संसार के भयो से मुक्त होकर रहेंगे। इस संसार मे कोई भी सदैव नही बना रहा है --संसार का प्रत्येक प्राणी एवं पदार्थ नश्वर है। यह मानव शरीर नष्ट होता ही है। कबीर कहते है कि इस कारण विश्वास पूर्वक सबसे प्रेम करने वाले राम क भजन करते रहो। अलंकार--(१) साग रूपक-जीवन माया और जंगल की माया का रूपक बांधा है। (२) पुनरुक्ति पकाश" ' "'चालि चालि।
विशेष--(१) प्रतीको का सफल प्रयोग है। जंगल, सिंह, बाघ, गज। (२) संसार के प्रति विरक्ति का प्रतिपादन है।
राग ललित
(३७४)
राम ऐसो ही जांनि जपौ नरहरी,
माधव मदसूदन बनवारी ॥टेक॥ अनदिन ग्यान कथै घरियार, धूवां धौलह रहै संसार ॥ जैसे नदी नाव करि संग, ऐसै ही मात पिता सुत अग ॥ सवहि नल दुल मलफ लकीर, जल बुदबुदा ऐसो आहि सरीर ॥ जिभ्या रांम नांम अभ्यास, कहौ कबीर तजि गरभ बास ॥