पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/८२८

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८२४] [कबीर निरगुण ब्रह्म्कियौ रे भाई,जा सुमरित सुधि बुधि मति पाई॥

  विष तजि रांम् न जपसि अभागे, का बुडे लालच के लागे॥
  ते सब तिरे राम रस स्वादी, कहै कबीर मेडे बकवादी॥

शब्दार्थ- निरमोलिक == अमूल्य। बकवादी == ज्ञान वघारने वाले। सन्दभ- कबीर निरगुण राम की भक्ति का उपदेश देते हैं। भावार्थ- हे जिन्हा। तू राम के गुणो मे तन्मय होकर भक्ति के आनन्द को प्राप्त करो। रे भाई, निर्गुण ब्रह्म का गुणगान करो जिसका स्मरण करने से सदबूद्धी,ज्ञान तथा विवेक की प्राप्ति होती है। रे अभागे जीव, तू विषयो के प्रति आसक्ति का त्याग करके राम नाम का भजन क्यों नही करता है? विषय-सुख के लोभ मे पढकर तू भव-सागर मे क्यों डूबता है? कबीर कहते हैं कि जो व्यर्थ ज्ञान का बखान करते है,वे भवसागर मे डुब जाते है और जौ भगवान राम की भक्ति करके आनन्द म्गन होते है, वे सब भवसागर के पार हो जाते है (मोक्ष को प्राप्त होते है।) अलंकार-- (१) अनुप्रास-- रसना राम रमि रस।

              (२) पदमैत्री-- सुधि वुधि।
              (३) गुढोक्ति-- न जपसि अभोगे, का '" " लागे।

विशेष-- (१) कबीर सच्ची भक्ति का प्रतिपादन करते है। व्यर्थ की शास्त्र-चर्चा को व्यर्थ बताते हैं। वे तो बार बार कहते हैं कि "पडित वाद वदै सो भूँठा।"

    कबीर कथनी को त्याग कर करनी के द्वारा ही उध्दार की कल्पना करते हैं।

(२) कबीर के राम निरगुण निराकार परमब्रह्म हैं, दाशरथि अवतारी राम नही।

                  (३७६)

निबरक सुत ल्यौं कोरा,

            राम मोहि मारि कलि विष बोरा॥टेक॥
 उन देस जाइबो रे बाबू, देखिबो रे लोग किन किन खैबू लो॥
    उडि कागा रे उन देस जाइबा, जासू मेरा मन चित लागा लो॥
    हाट ढूंढि ले, पटनपूर, ढु ढि ले, नही गांव कै गोरा लो॥
  जलबिन हंस निहस बिन रवू कबीर कौ स्वांमी पाइ परिकै मनैबूलौ॥

शब्दार्थ-- निवरक=निर्बल। कोरा=गोद। बाबू=भद्र पुरूपो। खबूलो=खाते है, रहन-सहन से तात्पर्य है। हाट=बाजार। पटनपुर=नगर। गोरा=गोला-किनारे की सदक। रवू=रवी=सूर्य। मनवूलो=मना लेना।

संदर्भ-- कबीर की जीवात्मा परमात्मा की प्राप्ति के लिए अपनी आतुरता व्यक्त करती है।