पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/८३२

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विशेष-- (१)साधना के प्रतीको का प्रयोग है। (२)जीव की शोभा ईश्वर-प्रेम है। इससे उसे हार कहते हैं। इस वर्णन पध्दति पर सूफ़ियो की पीर और उनके दाम्पत्य प्रेम का गहरा प्रभाव है। यथा- सखी एक तेइ खेल ना जाना। मैं अचेत मनि-हार गँवाँना। केवल डार गहि में बेकरारा। कासो पुकारों आपन हारा।

घर पठत पू़्ँछबा यह हारू। कौन उत्तर पाइब पैसारू

न जानौ कोन पौन लेड आवा। पुन्य दसा मैं, पाय गँवावा। ततखन हार बेगि उतिराना। पावा सखिन्ह चंद बिहँसाना। (मानसरोदक खण्ड, पद्मावत, मलिक मुहम्मद जायसी।) यहाँ चद शब्द पद्मिनी के लिए प्रयुक्त है, जो बुध्दि या शुध्द चित्तवृत्ति की प्रतीक है। (३) कबीर ने यहाँ यह वर्णन सामान्य भारतीय वधू की मन स्थिति की दृष्टि से किया है। एक कुल-वधु का आभुपन खो जाने पर उसे सास और पति का डर सताने लगता है। इस प्रकार कबीर द्वारा इस मनोदशा का वर्णन बहुत ही मार्मिक एव स्वाभाविक बन गया है। (४) हार गुहयौ राम ताग--राम-प्रेम ही इस हार का मूलाघर है। इसी से उसको 'तागा' कहते है। यथा-- जुगुति बेघ पुनि पोहिय राम चरित बर तागा। पहिरै सज्जन विमल उर जिनके अति अनुरागा।

                               (गोस्वामी तुलसीदास)

(५)लागै मोति-- मुक्ति को मुक्ता कहते है।एसमे श्लेष के चमत्कार के साथ साधर्म्य की भावना भी मुखरित रहती है-

                 मुक्ति-मुक्ता की मोल-मालही कहा है,
                    जव मोहन लला पै मन-मानिक हीवार चुकीं।
                               (जगन्नाथदास रत्नाकर)

(६) संवाद शैली का सुन्दर प्रयोग है। (७)पच सखी- लीन्ह। विपयासक्ति के वशीभूत होकर ही जीव इस विगुणत्मक जगत मे लिप्त होता है। यही उसका माया के वशीभुत होकर शुध्द चित-व्रत्ति का खो जाना है। यह माया हौ पडोसिन है।

   पडोसिन के लिए देखें टिप्पणी पद सरुया ३७।
                        (३७८)

नहीं छोडों बाबा राम नाम,

           मोहि और पढन सूं कोन काम॥टेक॥