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विविध ताप मे भगवान त्रिभुवन पति भगवान को भूलते है । (वाह्यऱचारो के
कारण लोभ दु ख हर्ता भगवान को विस्मृत कर बैठते हें १) कुछ अन्न छोड कर केवल दूध पीकर रहते हैं । परन्तु भगवान तब तक नही मिलते हें जब तक व्यक्ति का ह्रदय साफ न हो--उसकी कथनी-करनी समान न हो । कबीरदास कहते हैं कि व्यक्ति को एक निश्चित रूप से समभ्क लेना चाहिए कि राम की भक्ति के बिना कोई भी भवसागर पार नही कर सकता है अलंकार - (१) पुनरुक्ति प्रकाश ' दे दे । (२) अनुप्रास--त्रिभुवन पति त्रिविधि ताप । (३) वक्रोक्ति-राम...पार । विशेष…(१) वाह्याचार का विरोध व्यक्त है । विभिन्न सम्प्रदाय बन जाने के कारण प्रभु-भक्ति क्षीण हो गई है । (२) हरि न मिलै बिन हिरदै सूध । समभाव देखें-- सूघे मन सूघे वचन सूधी सब करतूति । तुलसी सूधी सकल बिधि रघुवर प्रेम प्रसूति ।
तथा-- निरमल मन जन सो मोहिं भावा । मोहि कपट छल छिद्र न भावा ।
(३) त्रिविध ताप-दैहिक, दैविक एव भौतिक । (३८१) हरि बोलि सूवा बार बार, तेरी ढिग मीनां कछू करि पुकार ॥ टेक ॥ अंजन मंजन तजि बिकार, सतगुरु समझायौ तत सार ॥ साध सगति मिलि करि बसंत, भौ बद न छूटै जुग जुगंत ॥ कहै कबीर मन भया अनद, अनंत कला भेटे गोब्यद ॥ शब्दार्य--सुवा==तोता । जीव से तात्पर्य हैं । मीना==मीनी (पाठान्तर),
मृत्यु का प्रतीक, वैसे मीना राजपूताने की एक युद्ध प्रिय जाति है । अजन==लेप, चदनादि का लेप । मजन= मार्जन, स्नानादि । बसत== आनंद । जुग-जुगत == युग युगातर । अनत कला = अनत कलाओ वाले ।
संदर्भ--कबीर कहते हें कि साधु-सगति द्वारा ही भवसागर के पार हो
सकते हैं ।
भावार्थ-- रे जीव रूपी तोते,बार बार भगवान का नाम-स्मरण कर ।
तम्हारे पास ही मृत्यु रूपी बिल्ली कुछ कह रही है । (बिल्ली म्याऊँ-म्याऊँ करती है । मृत्यु भी मानो यह कहती रहती है--मैं आऊँ, मैं आऊँ ।) चन्दनादि का लेप तथा तीर्थादि मे स्थान आदि विकारों को छोड दो । मुझे सत्गुरु ने ही यहीं सार तत्व सिखाया है । साधु-सगति मे वस कर वसत्तोत्सव (आनन्द) मनाओ अन्यथा तुम्हारे भव-वधन् युगयुगातर (जन्म जन्मातर) तक नही छूटेंगे । कबीर कहते है कि