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८३२ ] [ कबीर

इससे अनत कला वाले भगवान से तुम्हारा साक्षात्कार होगा और तुम्हारे मन को आत्मानन्द की प्राप्ति होगी । अलंकार (१) रूपकातिशयोक्ति--सुवा, मीना । बसंत । (२) पुनरुक्ति प्रकाश--- बार बार। (३) रूपक-अंजन मज़न विकार; भौबन्ध । (४) पदमैश्री-अजन भंजन । (५) सभग पद यमक… जुग जुगत । विशेष-- १) ब्राह्याचार का विरोध है | (२) सत्सग एवं गुरु की महिमा का प्रतिपादन है । (३) वसंत-वसन्तोत्सव वसत पचमी से होली की पूर्णिमा तब (४० दिन तक) मनाया जाता है । ( ३८२ ) बनमाली जांनै बन की आदि ,

रांम नांम बिन जनम बादि |। टेक||

फूल जु फूले रुति बसंत जामै मोहि रहे सब जीव जंत || फूलनि मैं जैसे रहै तबास, यु' घटि घटि गोविंद है ऩिव़ास || कहै कबीर मनि भया अनद, जगजीवन मिलिचौ परमानंद ।। शब्दार्थ --ब आदि== आरम्भ, उत्पत्ति ।बादि=व्यथॊ । रुचि बसत । आसक्ति का ससार । फुल==भोग-विलास । सन्दर्भ-कबीर दास प्रभू-साक्षात्कार के आनन्द का वर्णन कुरते हैं |, भावार्थ-वनमाला धारण करने वाले प्रभु रूपी वनमाली इस जगत रूपी वन के आदि (उत्पत्ति) को जानते हैं । राम-नाम के बिना यह जीवन व्यर्थ है । ऋतुवसत रूपी आसक्ति के ससार मे विभिन्न आकषं क भोगो के रुप मे जो फुल फुल़े हुए हैं, उनके द्वारा जगत के ममस्त जीव ़ जन्तु मोहित हो रहे हैं,उसी प्रकार सबके अन्त करणो में भगवान ़ व्याप्त् हो रहे हैं । कबीरदास कहते हैं कि जब परमानद रूप जगजीवन (ईश्वर) का साक्षात्कार हुआ, लौ मन 'आनंदित हो गया । अलंकार (1) रूपकातिशयोक्ति-सम्पूर्ण पद । वन, फूल,बसत | (२) साग रूपक-जीवन और वन का रूपक | (३) परिकराकुर-वनमाली । (19) उदाहरण--फूलनि निवास । (गा पुनरुक्ति प्रकाश-धॊ घटि । (शा) रूपक-जगजीवन परमानंद । विशोप ----(१) वन की आदि-- सप़ार का प्रारम्भ कव और कैसे हुआ, यह् अगम्य प्रश्न है | हमी से उसको भगवान ह़ी जानते हैं ।