दिशाओं मे फूट कर यह निकला है । कबीर कहते है कि यह जन्म व्यर्थ जा रहा
है । अब तो मैं केवल सामान को लादने का काम करता हूँ और मैं अपने सहज स्वरूप को प्राप्त हो गया हूँ ।
अलंकार----१) सागरूपक-जीवन को आद्यन्त एक व्यापार के रूप में
प्रस्तुत किया है । वक्रोति-कवन कान ।
(111) रूपक-कर्म पयादौ ।
विशेष-प्रतीको का प्रयोग है ।
(क) नायक- जीव ।
(ख) वनजारे पाँच-पाँच ज्ञानेन्दियाँ ।
(ग) बैल पच्चीस-पच्चीस प्रक्रृतियाँ।
आकाश की-- काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय ।
वायु की-चलन, वलन, धावन, प्रसारण, संकोचन ।
अग्नि की-- सुघा, तृषा, आलस्य, निद्रा, मैथुन ।
जल की-लार, रक्त, पसीना, मूत्र, वीर्य ।
पृथ्वी- अस्ति, चर्म, मास, नाडी, रोम ।
नौ वहिंयाँ-शरीर के नवद्वार, अथवा नौ हाथ (जिनसे नापते हैं)-चार
अन्त:करण-मन चित्त बुद्धि एव अहकार । तथा पंच प्राण-प्राण, अपान, समान,
उदान, न्यान ) सात सूत-सप्त घातु-रस, रक्त, माँस, वसा, मज्जा, अस्थि और
शुक्र ।
तीन जगाती-त्रिगुणात्मक प्रकृति-- सत, रज, तम ।
दस गूनें-दस इनिद्रयों के अतिरिक्त इनका अर्थ दस वायु भी हो सकती
हैं-प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान, नाग, कर्म, कूकरत देवदत्त तथा धनंजय ।
वहत्तर कसनियाँ ~ वहत्तर नाडिया ।
( ३८४ ) माधौ दारन दुख सझौ न जाइ, मेरी चपल बुधि तातै कहा वसाइ ॥ टेक । ।
तन मन भीतरि बसै मदन चोर, जिनि ज्ञांन रतन हरि लीन्ह मोर । मैं अनाथ प्रभू कहूं काहि, अनेक बिगूचे मैं को आहि ॥
सनक सनंदन सिव सुकादि, आपण कवलापति भये ब्रह्मादि ।
जोगी जगम जती जटाघार, अपनै औठार सब गये हैं हारि ।।
कहै कबीर रहु संग साथ, अभिअतरि हरि सू कहौ बात ।
मन ग्यांन जांनि के करि विचार, रांम रमतभौ तिरिबी पार १। शब्दार्थ-दारन=दारुण, कठार । चपल==चचल । बसाइ = वश नही है । विगूचा=दयोचा उन्नझन में डाल दिया ।