पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/८३८

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दिशाओं मे फूट कर यह निकला है । कबीर कहते है कि यह जन्म व्यर्थ जा रहा

है । अब तो मैं केवल सामान को लादने का काम करता हूँ और मैं अपने सहज
स्वरूप को प्राप्त हो गया हूँ ।

अलंकार----१) सागरूपक-जीवन को आद्यन्त एक व्यापार के रूप में

प्रस्तुत किया है ।
वक्रोति-कवन कान ।

(111) रूपक-कर्म पयादौ ।

विशेष-प्रतीको का प्रयोग है ।

(क) नायक- जीव ।

(ख) वनजारे पाँच-पाँच ज्ञानेन्दियाँ ।

(ग) बैल पच्चीस-पच्चीस प्रक्रृतियाँ।

आकाश की-- काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय ।

वायु की-चलन, वलन, धावन, प्रसारण, संकोचन ।

अग्नि की-- सुघा, तृषा, आलस्य, निद्रा, मैथुन ।

जल की-लार, रक्त, पसीना, मूत्र, वीर्य ।

पृथ्वी- अस्ति, चर्म, मास, नाडी, रोम ।

नौ वहिंयाँ-शरीर के नवद्वार, अथवा नौ हाथ (जिनसे नापते हैं)-चार

अन्त:करण-मन चित्त बुद्धि एव अहकार । तथा पंच प्राण-प्राण, अपान, समान,

उदान, न्यान ) सात सूत-सप्त घातु-रस, रक्त, माँस, वसा, मज्जा, अस्थि और

शुक्र ।

तीन जगाती-त्रिगुणात्मक प्रकृति-- सत, रज, तम ।

दस गूनें-दस इनिद्रयों के अतिरिक्त इनका अर्थ दस वायु भी हो सकती

हैं-प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान, नाग, कर्म, कूकरत देवदत्त तथा धनंजय ।

वहत्तर कसनियाँ ~ वहत्तर नाडिया ।

( ३८४ ) माधौ दारन दुख सझौ न जाइ, मेरी चपल बुधि तातै कहा वसाइ ॥ टेक । ।

तन मन भीतरि बसै मदन चोर, जिनि ज्ञांन रतन हरि लीन्ह मोर ।
मैं अनाथ प्रभू कहूं काहि, अनेक बिगूचे मैं को आहि ॥

सनक सनंदन सिव सुकादि, आपण कवलापति भये ब्रह्मादि ।

जोगी जगम जती जटाघार, अपनै औठार सब गये हैं हारि ।।

कहै कबीर रहु संग साथ, अभिअतरि हरि सू कहौ बात ।

मन ग्यांन जांनि के करि विचार, रांम रमतभौ तिरिबी पार १।
शब्दार्थ-दारन=दारुण, कठार । चपल==चचल । बसाइ = वश नही
है । विगूचा=दयोचा उन्नझन में डाल दिया ।