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ग्रन्थावली ] [ ८३५
सन्दर्भ- कवंरैरदास काम के व्यापक प्रभाव का वर्णन करते हैं ।
भावार्थ- हे माधव । काम के द्वारा दी जाने वाली दारुण व्यथा मेरे लिए
असह्य हो उठी है । मेरी चचल बुद्धि मुझे काम (विषय) की और आकृष्ट करती है उस पर मेरा कोई वश नहीं चलता है । मेरे शरीर और मन के भीतर कामदेव रूपी चोर रहता है । उसने मेरे आत्म-बोध रूपी रत्न का अपहरण करलिया है । हे प्रभु, मैं अनाथ हूँ । मैं अपनी व्यथा किससे निवेदन करुँ ? इस काम ने अनेक बडे-बडो
को दबोच डाला है । मेरी तो चलाई ही क्या है ? सनक, सनदन, शिव, शुकदेव, स्वय विष्णु ब्रह्मादि जैसे देवता, जोगी जगम, जटाधारी, आदि साधु-सभी अपना
समय आने पर (अथवा इससे पाला पडने पर) इसके सम्मुख हार गये हैं । कबीर कहते हैं कि साधुओं की सगति में रहो तथा अपने अन्त करण में विराजमान प्रभु से अपनी व्यथा निवेदित करो । मन से यह बात अच्छी तरह सोच-विचार कर समझ लेनी चाहिए कि भगवान (राम) में रमण करते हुए ही भवसागर को पार किया जा सकता है । अलंकार- (1) वक्रोक्ति-मेरी ' वसाइ ।
(11) रूपक--मदन चोर, ज्ञान रतन,
(111] पर्यायोक्ति-मैं को आहि ।
(111) अनुप्रास--सनक सनदन, सिव सुकादि सब; जोगी जगम
जती जटाघर ।
(प्रा) अत्युक्ति--सनक ' हारि । ( ३८५ ) तू करी डर क्यू' न करै गुहारि, तू' बिन पंचाननि श्री मुरारि ।। टेक ।।
तन भींतरि बसै मदन चोर, तिनि सरबस लीनौं छोर मोर ॥
मांगै देई न बिनै मानं, तकि मारै रिदा मैं कांम बानं ।। मैं किहि ग्रुहरांऊ आप लागि, तू करी डर बड़े बडे गये हैं भागि ॥ ब्रह्मा बिषएदू अरु सुर मयक, किहि किहि नहीं लादा कलक ॥ जप तप सजम सु'चि ध्यान, बंदि परे सब सहित ग्यांन ।।
कहि कबीर उबरे हँ तीनि, जा परि गोविंद कृपा कीन्ह ।। शब्दार्थ-करी == हाथी । पचाननि = सिंह । श्रवम: सर्वस्व । विनाविनै == विनय । गुहारिच==पुकारना । मयंक== चन्द्रमा । सुचि = शुचि , पवित्रता । सन्दर्भ-कबीरदास काम के व्यापक प्रभाव का वर्णन करते है । भावार्थ- हे मेरी जीवात्मा, तू काम रूपी हाथी से डर कर सहायतार्थ क्यों नही पुकारती है ? तुम पूछो कि मैं किसको पुकारूँ, तो इसका उत्तर यह है कि मुरारी रूपी सिंह के अतिरिक्त तुम किसको पुकारोगी ? अर्थात् कामरूपी हाथी से रक्षा के लिए तुमको मुरारि सिंह से ही पुकार करनी चाहिए । मेरे शरीर के भीतर कामदेव