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गुरुदेव को अग]
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शब्दार्थ—मिल्या = मिला। सिष = शिष्य। भया = हुआ। डाव = दाँव। दून्यू = दोनों। धार = मझधार। पाथर = पत्थर। नाव = नौका।

चौसठ दीवा जोइ करि, चौदह चंदा मांहि।
तिहिं घरि किसकौ चानिणौ, जिहि घरि गोविन्द नाहिं॥१७॥

सन्दर्भ—सतगुरु के प्रसाद से ज्ञान के प्रकाश से शिष्य आलोकित हो गया। जो गुरु स्वतः ज्ञानालोक से आलोकित है वह शिष्य के व्यक्तित्व से भी वासनाओं के तामसिक अन्धकार को दूर कर सकता है। सतगुरु ने शिष्य के व्यक्तित्व को ब्रह्म के प्रकाश से प्रकाशित कर दिया है। जो ब्रह्म के प्रकाश से आलोकित नहीं है, उनके व्यक्तित्व को कौन सुशोभित कर सकता है।

भावार्थ—जिस घर में गोविन्द का निवास नही है, वह घर चौसठ कलाओं और चन्द्रमा की चौदह राशियों से आलोकित होने पर भी, अन्धकार ग्रस्त ही रहेगा।

विशेष—प्रस्तुत साखी में दो बातें विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है। प्रथम ब्रह्म के ज्ञान का प्रकाश चौसठ कलाओं और चन्द्र की चौदह कलाओं के समन्वित प्रकाश से भी अधिक है। द्वितीय, यह कि हृदय मन्दिर ब्रह्मानुभूति के अभाव में शून्य और अन्धकार से ओत-प्रोत रह जायगा। (२) चौसठि दीवा से तात्पर्य है चौसठ कलाएँ जो अज्ञान के अन्धकार को दूर करती हैं। (३) चौदह चन्दा—चन्द्रमा की १४ कलाएँ जो अन्धकार को नष्ट करती है। (४) घर से तात्पर्य है = शरीर।

शब्दार्थ—चन्दा = चन्द्रमा। चानिणौं = प्रकाश।

निस अँधियारी कारणौं, चौरासी लख चन्द।
अति आतुर ऊदै किया, तऊ दिष्टि नहि मन्द॥१८॥

सन्दर्भ—विगत साखी में कवि ने कहा है कि "तिहि और किसको वाणियों जिहि घरि गोविन्द नाहि"। उसी भाव को विकसित करते हुए यहाँ कबीर ने कहा है कि अज्ञान निशा को दूर करने के लिए अत्यन्त आतुरता के साथ यदि ८४ लाख चन्द्र को उदित करने का आयोजन किया जाय तो यह दूर नहीं होगा, यदि दृष्टि माया के कारण मलीन है।

भावार्थ—रात्रि के अन्धकार को दूर करने के लिए यदि अत्यन्त आतुरता के साथ ८४ लाख चन्द्र को उदित किया जाय तो भी अन्धकार दूर नहीं होगा, यदि दृष्टि मलिन है।

विशेष—यदि दृष्टि मन्द है, या मलीन है तो एक साथ ८४ लाख चन्द्र का प्रकाश भी नहीं दृष्टिगत होगा। चन्द्र और द्वेषों के मध्य में विकारों का