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प्रत्थावली] [५३६

    पहुप पुरांने भए सूक,तब भवरहि लागी अधिक भूख॥
    उड़चो न जाई बल गयो है छूटि,तव भवरी रू'नी सीस कूटि॥
    दह दिसि जोवै मधुप राई,तब भवरी ले चली सिर चढ़ाइ ॥
    कहै कबीर मन कौ सुभाव,रांम भगति बिन जम कौ डाव॥
      शब्दार्थ--भ्रमर=मन। भ्रमरी=विवेक-बुध्दि। सुरंग=सुन्दर रग ।
   वनस्पति वन। रूनी=रोई । डाव=भय ।
       संदर्भ-कबीर का कहना है कि अन्तत राम भक्ति ही जीवन की सार्थकता है॥
       भावार्थ--विवेक-बुद्धी रूपी भ्रमरी ससार की विपय-वामनाओ से दु खी एव उदास होकर कहती है कि रे मन-रूपी भ्रमर,तुम भगवान के चरण कमलो के प्रति अनुरक्त बनो। तुमने अनेक विपय रूपी पुरुषो का रस भोगा है। उससे तुमको कुछ भी सुख प्राप्त नही हुआ,अपितु मोह-रूप रोग की वृद्धि हुई है। यह बात तुमसे बार-बार कह चुकी हूँ। इस ससार रूपी वन की डाज-डाल पर मैंने आनंद की खोज की,(लेकिन सब व्यर्थ)। ये विषय रूपी सुन्दर रग के फूल केवल चार दिन के ही हैं। इन्हे देखकर तू क्यो मोहित हो रहा है? इस ससार रूपी जगलमे आग लग जाएगी। तब तुम अपने प्राणो के रक्षार्थ कहाँ भाग कर जाओगे? (तब भी तुम्हे भगवान की शरण मे ही जाना पडेगा।) परन्तु भ्रमर ने भ्रमरी की बात नही मानी। कुछ दिनो पश्चात फूल पुराने पड कर सूख गये(विषय की सामर्थ्य क्षीण हो गई),तब भ्रमर रूपी मन को ईश्वर-प्रेम की भूख जोर के साथ लगी। परन्तु इस समय उसका शरीर इतना हीनवीयं हो गया था कि उससे उडा ही नही जाता था। उसकी यह दशा देख कर बुध्दि रूपी भ्रमरी सिर पीट-पीट कर रोने लगी। मन रूपी भ्रमर भी अपने किए पर पश्चाताप करता हुआ दसो दिशाओ मे घूम घूम कर रोने लगा। तब भ्रमरी उसको अपने सिर पर चढाकर भगवान के चरणारविन्द के पास ले  गैई। कबीर कहते हैं कि मन रूपी भ्रमर का यह सहज स्वभाव है कि जब तक उसको भगवान के चरण कमलों का सानिध्य प्राप्त नही होता है,तब तक मृत्यु भय से उसकी मुक्ति नही होती है ।
         अलंकार---(१) रूपकातिशयोक्ति---भवरा,भवरी,पुहुप,वन।
                  (२) साग रूपक---सम्पूर्ण पद।
                  (३) वीप्सा--चलि चलि रे।
                  (४) विशेषोक्ति--तं ' सुख न भयो।
                  (५) विरोघाभास --भयो तब'रोग,पुहुप पुरानेभूख।
                  (६)पुनरुक्ति प्रकाश--वार-वार,डार-डार।
                  (७)गूढोक्ति---कहा' भूल।
        विशेष---(१) इस पद मे बुद्धि-मनस और काम मनम के दून्द्व का सुन्दर वर्णन है।अन्तत' बुध्दि मनस की विजय होती है और काम का बुध्दि मनस का बुध्दि मनस मे