पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/८४४

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पर्यवसान हो जाता है। यही बुध्दिरूपी भ्रमरी का मन रूपी भ्रमर को अपने सिर पर चढ़ाना है। सद्प्रवृत्तियो एव दुष्प्रवृत्तियो का यह मानसिक शाश्वत है। इसी प्रकार दैवासुर-सग्राम, पाण्डव-कौरवो का महारभारत, राम-रावण का युध्द आदि कहा गया है। बुध्दि मनस विश्व-चेतना की वाहिका है। वही विश्व-चेतना स्वरूप भगवद् चरणो के प्रति उन्मुख वृत्ति है। विवेक एव भक्ति के प्रति वासनात्मक मन का समर्पण जीव का स्वभाव एव जीवन की सार्थकता है। इसी का वर्णन इस पद मे किया गया है।

(॥) विविध रस-लोलुप होने के कारण मन भ्रमर है। भ्रमर को तृप्ति केवल कमल प्रदान कर पाता है और वह उसी के कोश मे आवध्द हो जाता है। इसी से भगवान के चरणो को कमल कहने हैं। चरण कमलो का स्मरण करते-करते वासनात्मक बुद्धि का अदूतै बुध्दि मे पर्यावसान ज्ञानी भक्तों का प्रतिवाध्य रहा है। भ्रमर गीत की परम्परा का साहित्य इसका ज्वलत उदाहरण है।

(३५६) आवध रांम सबै करम करिहु, सहज समाधि न जमथे डरिहूं॥ टेक॥ कुभरा ह्वै करि बासन घरिहू, धोबी ह्वै मल धोऊ। चमरा ह्वै करि रगौ अधौरी, जाति पांति कुल खोऊ॥ तेली ह्वै तन कोल्हू करिहौ, पाप पुनि दोऊ पीरौं। पच बैल जब सूध चलाऊं, राम जेवरिया जोरू॥ ज्ञत्री ह्वै करि खड़ग सँभालूं, जोग जुगति दोउ साधुं। नऊवा ह्वै करि मन कूं मूड़ू, बाढ़ी ह्वै कर्म बाढूँ॥ अवधू ह्वै करि यहु तन धूतौं बधिक ह्वै मन मारू। बनिजारा ह्वै तन कू बनिजूं, जुवारी ह्वै जम हारूं॥ तन करि नवका मन करि खेवट, रसना करऊ बाडारू। कहि कबीर भौसागर तरिहूं, आप तिरू बप तारूं॥

शब्दार्थ-- आवध=अवधि पति। कुभरा=कुम्हार। धरिहूं=बना दूंगा। अधौरी=घिनोनी वस्तुएँ। पीरौं=पेलूँगा। अवधू=अवधूत, जोगी। करऊँ वाडारू= डा० माताप्रमाद गुप्त ने इसका अर्थ करउवा =डालू करके 'पतवार डालूँगा' लिखा है। डा० भगवत्स्वरुप मिश्र ने इसका अर्थ "करऊँ-वाडारूँ" करके रस्सा बना दूँगा लिखा है। केवट के संदर्भ मे 'पतवार' अधिक सगत है। इसी से हमने इसका अर्थ 'पतवार' ही कीया है। वप=वाप, पूर्वज।

सन्दर्भ--कबीरदास कर्म की कुशलता द्वारा उध्दार की कामना करते है। भावार्थ--हे अवधपति राम, मैं सब कम करूँगा और सहज समाधि को