पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/८५०

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(२) वक्रोक्ति- कौन गुणा । (३) उल्लेख-निज अमृत सार । (४) पुनरुक्ति प्रकाश-सुमिर सुमिर । (५) सभंग पद यमक- दासनि दास । विशेष- (1) अनन्य भक्ति का प्रतिपादन है (२) मृग, मीन, भूगी परम्परागत प्रेम-प्रतीक हैं ।

              राग सारंग

यहु ठग ठगत सक् ल जग डोलै,

गवन करै तब मुषह न बोलै टेका।
तू मेरौ पुरिषा हौ तेरी नारी, तुम्ह चलते पाथर थे भारी ।
बालपनां के मीत हमारे, हमहि लाडि कत चले हो निनारे ।
हम सु" प्रीति न करि री बौरी, तुत्ह से केते लागे दौरी । 
हम काहू संगि गये न आये, तुम्ह से गढ़ हम बहुत बसाये॥
माटी की देही पवन सरीरा, ता ठग सू" जन डरै कबीरा ॥ 
शब्दार्य=-ठग=जीव । नारी= देह से तात्पयॅ है । पाथर=पत्थर ।

थे भारी=से भी अधिक कठोर । निनाद=न्यारे, अलग । =लगन । गढ =अडु। ।

  सन्दर्भ-कबीर जीवन की निस्रसारता का निरूपण करते हैं
  भावार्थ-यह जीव रूपी ठग समस्त ससार को ठगता हुआ घूमता है ।

यह शरीर का आश्रय लेकर ससार के सुखो को भोगता है और फिर शरीर को छोड कर चला जाता है । (जाते समय यह शरीर के प्रति निमोहीं हो जाता है) और शरीर से मुह से भी नहीं बोलता है । इस समय यह काया उससे कहती है कि तुम मेरे पुरुष (पति) हो और मैं तुम्हारी आश्रिता पत्नी हूँ । तुम इस पत्थर से भी अधिक कठोर वन कर चले जा रहे हो ? तुम तो हमारे बालकपन के मित्र हो । तुम हमसे अलग होकर कहाँ जा रहे हो ? जीव उत्तर देता है कि, "हे पगली हमसे प्रीति मत करे । तुम्हारी जैसी न मालूम कितनी नारियों से हमने लगन लगाई है । हम किसी भी शरीर के साथ न तो आए हैं और न किसी शरीर के साथ जाते ही हैं । हमने तुम्हारे जैसे काया रूपी अनेक अटु" वसाए हैं (हम तो अहुँ पर टिकते हैं और चले जाते हैं । जिस ठग रूपी जीव की काया स्कूल मिट्टी की भाँति नएवर है तथा जिसका प्ररैक तत्त्व हवा की तरह अस्थिर है, उससे भगवान का भक्त कबीर बहुत डरता है, अथात उसके प्रति कबीर बिलकुल यासक्त नहीं हैं ।

   अलल्न्कर(१) सभग पद यमक-ठग ठगत ।
          (२)व्यतिरेक-पाथर थे भारी ।
          (३)रूपक-माटी 'सरीरा ।