पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/८५१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

(क्या) रूपकातिशयोक्ति--ठग ।

विशेष= (१) देह की नश्व्र्ता, जीव का अनेक योनियों में भटकना तथा शरीर की आसक्ति' का विपरीत लक्षणा द्वारा अच्छा वर्णन किया गया है ।

(२) जीव न मालूम कब शरीर को छोड दे इससे भगवान का भजन ही सार है । यह व्यजना है ।

( ३९५ ) धनि सो घरी महूरत्य दिनों, जब गिह आये हरि के जनों टेक। व्यसन देखत यहु फल भया, नैनां पटल दूरि है गया ।।

सब्द, सुनत संसा सब छूटा, श्रवन कपाट बजर था सूटा ।।

परसत घाट फेरि करि पाया, काया कर्म सकल झडि पड़या ।।

कहै कबीर संत भल भाया, सकल सिरोमनि घट मैं पाया ।।

शब्दार्य…मुहुत्त३ ६८द्धा समय (काल), पटल-द्वा-वापल । कपाट-किवाड़ । वज़र= वज्र है पाटद्वा-शरीर । फेरि करि = दुवारा । घडया=८ निर्माण कर दिया । सकल सिरोमनि९=भगवान । काया-क्रर्म=इन्दियार्माक्त । सदभ-कबीरदास सत्संग की महिमा का वर्णन करते है । भावार्थ-वह घडी, वह समय तथा वह दिन धन्य था जब घर पर भगवान के भक्त पधारे । उनके दर्शन करते ही यह प्राप्त हो गया की आखो के सामने से अज्ञान का पदों हट गया । उनके उपदेशामृत को सुनते ही सम्स्त संशय दूर हो गये तथा कानों पर लगे हुए बज के किवाड भी टूट गये । उनके स्पर्श मात्र से यह काया दूसरी ही होगई अथवा उनके सत्सग द्वारा मुझे एक नवीन जीवन ही प्राप्त हो गया तथा विषय-भोगो के प्रति समस्त आसक्ति समाप्त हो गई । कबीर कहते हैं कि मुझको सत बहुत ही अच्छे लगे, क्योंकि उनकी सगति के प्रभाव से मुझको अपने हृदय से सम्पूर्ण विश्व के शिरोमणि भगवान का साक्षात्कार हो गया ।

अलकार- (१) चपलातिशयोक्ति की व्यंजना-दरसन ' "पडया 1

       (२) रूपकातिशयोक्ति-पटल ।

विशेष- समभाव के लिए देखें---.

      जा दिन संत पाहुने आवत ।
    तीरथ कोटि स्नान करे फल, जैसी दरसन पावत ।

४ ४ ४ बंधन-करम कठिन जे पहले, सोऊ कारि कहावत । सगति रहै साधु की अनुदिन, भव-दुख दूरि नसावत । सूरदास, या जनम-मरन तें, तुरत परम-गति पावत । (सूरदास)