पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/८५२

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८४८ ] [ कबीर राग मलार ( ३९६ ) जतन बिन मृगनि खेत उजारे। टारे टरत नहीं निस बासुरि, बिडरत नहीं बिडारे ॥टेक।। अपने अपने रस के लोभी, करतब न्यारे न्यारे । अति अभिमान बदत नहीं काह, बहुत लोग पचि हारे ॥ बुधि मेरी किरषी, गर मेरौ बिझुका, अखिर दोइ रखवारे कहै कबीर अब खान न देहू, बरियां भली सभारे ॥ शब्दार्थ-~-जतन=यत्न, साधना । मगनि = पशुओ, पाशविक वृत्तियाँ-काम क्रोधादि । बिडरत= बिडारना, भगाना। किरषी=कृषि । बिझुका= विजूका, खेत मे जन्तुओ को डराने के लिए खडा किया हुआ पुतला इत्यादि। सन्दर्भ- कबीरदास विषयासक्ति का वर्णन करते है। भावार्थ-साधना के अभाव मे काम क्रोधादिक विकारो (अथवा इन्द्रियासक्ति) रूपी पशुओ ने मेरे जीवन रूपी खेत को नष्ट कर दिया है। ये रात दिन घेरे रहते हैं, हटाने से हटते नही हैं और भगाने से भगते नही है । तात्पर्य यह है कि 'मन को कितना भी समझाओ और विषयो से हटाने का प्रयत्न करो, परन्तु वह मानता ही नही है । पाशविक वृत्तियो रूपी ये पशु अपने अपने विषय-स्वाद के लोभी हैं और अलग-अलग ढग से विषय की ओर प्रवृत्त होते है और उसका भोग करते हैं (जिस प्रकार प्रत्येक पशु) अपनी भिन्न रुचि के अनुसार खेत मे उत्पन्न होने वाली वस्तु को खाता है। प्रत्येक पशु का खेत मे घुसने और उसको उजाडने का तरीका भी भिन्न होता है ।) इन सबको अपनी सामर्थ्य का बहुत ही धमड है और ये अपने आगे किसी साधक को कुछ भी नहीं समझते हैं । इनके ऊपर नियन्त्रण करने के प्रयास मे 'बहुत से साधक थक कर बैठ गये अर्थात् असफल हो गये। कबीर कहते हैं कि अब मैंने ठीक समय पर समस्त स्थिति को समझ लिया है । अपनी बुद्धि रूपी कृपी की रखवाली के लिए मुझे गुरु का उपदेश रूपी विजूका मिल गया तथा 'रा' और 'म' ये दो अक्षर उस खेती की रखवाली करने वाले मिल गये हैं । अब मैं इन मृगो को जीवन-रूपी खेत नष्ट नहीं करने दूंगा। अलकार-(1) सांगरूपक-सम्पूर्ण पद खेत और जीवन का रूपक है । (1) रूपकातिशयोक्ति-मगनि । (iii) पुनरुक्ति प्रकाश-न्यारे-न्यारे। (iv) विशेषोक्ति-हारे · · विडारे । विशेष-(1) व्यजना यह है कि सद्गुरु की कृपा और प्रभु की भक्ति के द्वारा ही विपयासक्ति को वश में किया जा सकता है, अन्यथा नही। (1) 'बरियाँ' का अर्थ 'वाड' भी हो सकता है । तब इस पक्ति का अर्थ इस प्रकार होगा-"मैंने अपने खेत की सयम एव सात्त्विक बुद्धि रूपी वाड़ ठीक कर