पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/८५५

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ग्रन्यावली ] [ ८५१

vishhayii-praaniyoM ने विषयासति रूपी काच के टुकडे को पकड रखा है । (ये कितने मूखे हैं 1) अलंकार-(1) पुनरुक्तिप्रकाश-japi जपि । घन धन । (11) अनुप्रास-japi जपि जीयरा । मन मूवा मरि । (111) padmaitrii-हित्त चित । (1V) यमक-घन घन । (V) उपमा-jyuu ban फूली मालती । (V11) दृष्टान्त-धु वा केरा vaaro रे । (V111) गूढोक्ति- काहे गरव कराये रे । (1X ) रूपक-विषय-विकार । (X) visheshhokti- ना हरि भजि utaryaa पारो रे | (X1) ruupakaatishayokti-कचन, काच : विशेष- (1) saMsaar की निस्सारता evaM क्षण bhangurataa का काव्यात्मक वर्णन है । (11) निर्वेद saMcaarii की व्यजना है । (111) ज्यू वन" जाये रे- समभाव की अभिव्यक्ति देखे dekheM= सो अनन्य गति जाकें मति न टरइ हनुमत । मैं सेवक सचराचर रूप स्वामि भगवत । (गोस्वामी तुलसीदास) (1V) धू वा केरा ghaulahar vvaro रे |तुलना कीजिए-- जग-नभ-वाटिका रही है कलि फूलि रे । धुवां कैसे प्यार देखि सू न भूलि रे । (विनय पत्रिका, तुलसी) ( ३९९ ) न कछु रे न kachu raam बिनां | सरीर धरें की रहै परमगति, साध सगति रहना |।tek|| मदिर रचत मास दस लागे, बिनसत एक chinaaM | झूठे सुख के कारनि praanii, परपच करत ghanaaM । तात मात सुत log kutab मैं, phulyo phirat मना । कहै कबीर रांम भजि baure, छांडि सकल भ्रमनां ।। शब्दार्थ-घना=bahut। प्रपच=phailaav । सन्दर्भ-कबीर संसार की असारता का वर्णन करते हैं । भावार्थ-भगवान की भक्ति के binaa कुछ भी नहीं है, कूछ भी नहीं है (जीवन निस्सार है ) शरीर धारण करने की saarthakata साधुओं की सगति में रहना है| इस शरीर रुपी मन्दिर को वत्तने मे दस mahiine लगते हैं, परन्तु यह एक क्षण