ग्रन्थावली] [९९
भावार्थ--लोगो की बुध्दि भोली है----वे सहज ही हरेक बात पर विश्वास
कर लेते हैं। कबीर कहते है कि यदि काशी में शरीर छोडने पर मोक्ष की प्राप्ति 'हो जाए,तो फिर मोक्ष के लिए राम से कोई प्रार्थना kyoM करे । pahale हम भी अंधविशवासों मे फसे हुए थे,परन्तु अब उनसे मुक्त होकर इस प्रकार की विवेक पूर्ण बातें करने लगे है। अन्ध विश्वास से मुक्त होकर सच्ची ईश्वर-भक्ति के प्रति उन्मुख हो जाना ही इस मानव-जीवन की सार्थकता hai| जैसे जब एक बार जल मे प्रविष्ट हो जाने पर फिर बाहर अलग नही निकाला जा सकता है--वह उसके साथ एक रस हो जाता है,उसी प्रकार यह जुलाहा कबीर भक्ति से द्रवित होकर ब्रहा के साथ एकाकार हो गया। राम भक्ति मे जिसका प्रेम है और राम-चरणो मे जिसका चित लगा हुआ है,उसके लिए इस प्रकार की अव्दवैतावस्था की प्राप्ति कोई आश्चर्य की बात नही है। गुरु की क्रपा और साधु संगति के प्रभाव से निम्न जाति जुलाहा मे उत्तपन्न यह कबीर जीवन-मुक्त हो रहा है। कबीर कह्ते हे कि हे सतो, सुनो। कोई भी किसी प्रकार के भ्रम मे न रहो। अगर भ्गवान के प्रति सत्य निष्ठा है, तो अवश्य मोक्ष की प्राप्ति होगी। फिर चाहे काशी मे शरीरात हो, चाहे मगहर में ।
अलंकार--(I)पर्यायोत्त्कि--जो कासी'निहोरा। (II)उदाहरण--ज्यूँ जुलाहा। (III)वत्र्कोत्कि-ताकौ अचिरज काहा ? (IV)अनुप्रास--जग जीतै जा जुलाहा । (VI)व्यतिरेक की व्यजना--जग जीतै जाइ जुलाहा। विशेष--(I)अध विश्वास का खण्डन है। (II)कबीर के 'मगहर'वास वाली बात की पुष्टि होती है। (III)'जुलाहा'शब्द मे सवर्ण जाति पर कटाक्ष है। नीच जाति मे जन्म लेकर भी कबीर ने मोक्ष प्राप्त करली और बडे-बडे धर्म ध्वज रह गये । ठीक
कही है--
जाति पाँति पूछै ना कोई । हरि को भजै सो हरि हरि फो होई। तथा--- भगतिवंत अति नीचउ प्रानी । मोह प्रानप्रिय असि मम वानी। (४०३) ऐसी आरती त्रिभुवन तारे, तेज पुंज तहौ प्रांन उतारै ॥ टेक ॥ पाती पंच पहुप करि पूजा , देव निरजन और न दूजा । तनमन सोस समरपन कीन्हो,प्रगट जोति तहा आतम लीनां॥ दीपक ग्यांन सबद धूनि घटा,पर पुरिख तहां देव भनंता । परम प्रकास सकल उजियारा,कहै कबीर मै दास तुम्हारा ॥