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गुरुदेव को अंग]
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विशेष—माया के आकर्षक स्वरूप पर मानव उसी प्रकार भ्रम के कारण, या अज्ञान के कारण मडला-मडला कर गिरता है, यथा दीप-शिखा पर पतंग आकर्षित होकर प्राण अर्पित कर देते हैं। (२) "एक आध" से तात्पर्यं विरले। (३) प्रस्तुत साखी में अप्रत्यक्ष रूप से सतगुरु की सामर्थ्य की प्रशंसा की गई है। वह सर्वथा स्तुत्य और बंदनीय है।

शब्दार्थ—पडंत = पड़ते हैं। उबरंत = उबरते हैं।

सतगुर बपुरा क्या करै, जे सिपही मांहै चूक।
भावै त्यूं प्रमोधि ले, ज्यूं बँसि बजाई फूंक॥२१॥

सन्दर्भ—यदि शिष्य माया में अनुरक्त है, या दोषपूर्ण हो तो सतगुरु का क्या दोष। सतगुरु की शिक्षा का कोई भी प्रभाव शिष्य पर नहीं दृष्टिगत होगा यदि वह दोषयुक्त हो। परन्तु निपुर्ण या साधना में सिद्ध सतगुरु दोषों से अभिशप्त शिष्य को भी प्रबुद्ध कर लेता है। तथा कुशल वाद्यकार छिद्रों से युक्त वासुरी के माध्यम् से सुन्दर एव मनोहर राग प्रस्फुटित करता है।

भावार्थ—सतगुरु बेचारा क्या करे, यदि शिष्य ही दोष या त्रुटि पूर्ण है। (कुशल) सतगुरु उसी प्रकार से शिष्य को प्रबुद्ध कर लेता है। यथा कुशल बजाने वाला (बहु छिद्रों वाली) बांसुरी को बजा लेता है।

विशेष—प्रस्तुत साखी में कवि ने युक्ति संगत बात का उल्लेख किया है। समर्थ सतगुरु शिष्य को वैसे ही उचित मार्ग पर ले आता है। यथा बासुरी बजाने वाला, बहुछिद्र सम्पन्न होने पर भी बासुरी को बजा लेना है।

शब्दार्थ—बपुरा = बेचारा। सिपाही = शिष्य ही। माहै = में है। प्रमोधि = प्रवोध।

संसै खाया सक्ल जुग, संसा किनहूँ न खद्ध।
जै वेधे गुरु अप्पिरां, तिनि संसा चुणि-चुणि खद्ध॥२२॥

सन्दर्भ—सतगुरु के शब्दों में अद्भुत शक्ति एवं अद्भुत प्रभाव है। उस महानात्मा के शब्दवाणी ने शिष्य में जिन अद्वितीय शक्तियों को समुत्पन्न कर दिया है, उनका उल्लेख पीछे साखियों में हो चुका है। संशय ने समस्त संसार को नष्ट कर दिया है। पर जो सतगुरु के शब्दवाणी से आहत हो चुके हैं, उन्होंने संशय को भी नष्ट करके मृत्यु पर विजय प्राप्त कर ली है।