पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/८६३

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अधिकारी है। सच्चा योगी वही है जो समार के प्रति आमक्ति को भस्म कर लेता है तथा चिन्तनपूर्वक सहज तत्व को ग्रहण करता है। वह अपने अन्त करण मे ही अभय तत्व से परिचय प्राप्त करके बात करता है। उसी का मनन और निदिध्यासन करता है। एेसे योगी का निश्चय कभी डिगता नही है। हे जैनी,तुम अहिंसा द्वारा जीव की रक्षा करने का दम्भ भरते हो,पर यह तो विचार करो कि तुम किस जीव का उध्दार कर रहे हो?(जीव का स्वरूप पहिचान कर)यह जानने का प्रयत्न करो कि चौरासी लाख योनियो का स्वामी कहाॅ रहता है?इस रहस्य को समभने पर ही तुमको मुक्ति की प्राप्ति हो सकेगी। भक्त इस ससार से तिरने(पार होने)का संकल्प करता है,पर वह पहले यह तो समझ ले कि तात्विक रूप से तिरना है क्या?प्रेम का स्वरूप समझ कर जो राम का स्मरनण करता है,वही भक्त भगवान का दास कहला सकता है। पण्डित चारो वेदो का गुणगान करता है और विश्व के आदि और अंत स्वरूप ब्रम्ह का पुत्र कहलाता है। पर हे पडित उत्पत्ति(अदि) एव प्रलय (अत)के वास्तविक स्वरूप का चिन्तन करके उसाका वर्णन करो। नीची और ऊॅची सभी स्थितियों के सन्यासी वास्तव मे उस एक अविनाशी तत्व मे ही अनुरक्त रहते है।जो सन्यासी उस अजर,अमर तत्व को हढ्नापूर्वक (पूर्ण निष्टा के साथ)grahaN कर लेता है,वह समाधि को प्राप्त करता है,और परमतत्व मे प्रतिष्ठित हो जाता है। जिसने प्रुथ्वी को गति प्रदान को,ब्रम्हाण्ड की srushti की और प्रुथ्वी को नवखण्डो मे विभाजित कर दिया,उस अविगत पुरुश की माया किसी के द्वारा भी नही जानी गई है। भक्त कबीर उस अगम्य तत्व मे अपनी लौ लगाए हुए है। अलकार-(१)रूपक-तेल jaarai।

      (२)भ्रान्तिमान-मुलना जानी।
     (३)पदमंत्री-अधं उर्घ।अरघक उरघक।
     (४)अनुप्रास-जगम जागे जहू वा,जीव। तिरण तत ते।
     (५)वक्रोक्ति-कौन उधारा।
     (६)सम्बन्धातिशयोक्ति-क्षविगत जाइ।

विशेष-धार्मिक क्रुत्यो तथा कायायोग की अपेक्षा ज्ञान एव भक्ती भी श्रेष्ठता का प्रतिपादन है।

                    [२]सतपदी रमैणी
                          (२)

कहन सुनन कौ जिहि जग कीन्हा,जग भुलांन सो किनहू न चीन्हा॥ सत रज तम थै किन्ही माया,आपण मांभ आप छिपाया॥ ते तौ आहि अनद सरूपा,गुन पल्लव बिस्तार अनूपा॥ सखा तत थै कुसुम गियांनां,फल सो आछा रांम का नांमां॥