पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/८६४

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सदा अचेत चेत जोव पंखी,हरि तरवर करि बास। भूठे जगि जिनि भूलसि जियरे,कहन सुनन की आस॥

शब्धार्थ --- कुसुम = फूल।

saMdarbh --- कबीर जगत के मिथ्थात्व का प्रतिपादन करते है।

भावार्थ --- कहने-सुनने के लिए ही(केवल लोकिक द्रुष्टि से ही जिस जग की रचना हुई है,उसके वास्तविक स्वरूप को किसी ने नही जाना है और ससार के सम्पूर्ण जीव उसमे श्रमित है। सतोगुण,रजोगुण और तमोगुण के द्वारा इस माया- मोह की स्रुष्टि हुई है। इस caitany तत्व ने अपने आपको अपनी ही माया के द्वारा आव्रुत्त कर लिया है। वह तत्व स्वयं तो आनन्द स्वरूप है। ये तीनो गुण इस जगत रूपी व्रुक्ष के पत्ते है। उसकी शाखाओं मे ग्यान के फूल लगे है और रामनाम उस का फल है। रे निरंतर अज्ञान मे अचेत रहने वाले जीव रूपी पक्षी जागो और हरि रूपी इस व्रुक्ष की शरण मे चले जाओ। रे जीव, इस मिथ्या संसार के मोह मे apne आपको मत भूलो। इस जगत की समस्त आशाएँ केवल कहने-सुनने भर के लिए है --- उनका परमार्थत कोई अस्तित्व नही है।

अलंकार --- (१) सवधातिशयोक्ति -- किनहूँ न चीन्हा। (२) साग रूपक -- गुन पल्लव जामा। (३) सभग पद यमक -- अचेत चेत। (४) रूपक -- जीव पखी, हरि तरवर।

विशेप ---(१) ज्ञान और भक्ति का समन्वित संदेश है। (२) संसार को 'कहन-सुनन' की आस कहकर उसके क्षणभंगुर स्वरूप का कथन किया गया है। (३) कहन-सुनन मे लक्षण का चमत्कार द्रुष्टव्य है। (४) उन्मिनि -- देख टिप्पणी पद से १४४। (५) गुन पल्लव नामा - तुलना करे--


अव्यक्त मूलमलनादि तरू स्वच चारि निगमागम भने। पट कघ साखा पंच बीस अनेक पर्न सुमन घने। फल जुगल विधि कदु मधुर वेलि अकेजि जेहि आश्रित रहे। पल्लव फूलत नवल नित संसार विटप नमामहे। (गोस्वामी तुलसीदास,raamcaritmaanas)


सुक विरख यहु जगत अपाया,समझि न परै विषम तेरी माया॥ साखा तोनि पत्र जुग चारी फल दोइ पाप पुंनि अधिकारी। स्वाद अनेक कथ्या नही जाहीं,किया सदित्र सो इन मै नाहीं॥ तोतौ आहि निनार निरंजना,आदि अनादि न आना। कहन-सुनन कौ कोन्ह जग आपै आप भुलाना॥