पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/८६५

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शब्दार्थ --- सूक = सूखा हुआ, निष्तत्व एवं नीरस।
निरस = भिन्न।

<br /संदर्भ --- पूर्व पद के समान।

भावार्थ --- हे भगवान, आपने निष्तत्व एवं नीरस जगतरूप वृक्ष को उत्पन्न
किया है। हे प्रभु आपकी यह माया बडी ही दुर्वोघ है, समक्त मे नही आती है।
त्रिगुणरूपी इसकी तीन शाखायें हैं चार युग ही इसके पत्ते हैं और पाप-पुण्य ही
इसके दो फल हैं। इन फलो के विषय भोगरूप अनेक स्वाद हैं जिनका वर्णन नही
किया जा सकता है। जिसने इन सबको बनाया है, वह इनमे लिप्त नही है -- वह
इनसे पुथक एवं निरंजन माया-रहित तत्व है। आदि और अनादि नाम से जिसे
अभिहित किया जाता है, वह यही निरंजन तत्व है, कोई दुसरा नही। उसने केवल
कहने सुनने के लिए जगत की सृष्टि की है - अर्थात जगत एवं जगत का सृष्टि
करना यह सब कोई पारमार्थिक सत्य नही है, केवल कथन मात्र है। सृष्टि कुछ
हुई नही, वह तो विपत्त मंत्र है। ब्रह्म स्वयं अपनी माया मे ही भुले हुए हैं।
हम सब स्वयं अपने वाह्य रूप मे लिप्त होकर अपने वास्तविक आम्यतर क्वरूप
को भूले हुए हैं। यही जगत है।

अलंकार -- (१) विरोधामास -- मूक उपाय।
(२) साग रूपक -- सम्पूर्ण पद।

विशेष -- (१) देखे टिप्पणियाँ पूर्व रमैणी।
(२) इसमे अद्वतवाद एवं मायावाद के अनुसार जगत का निरूपण है।
(३) यहाँ जगत की सृष्टि की ज्ञान परख एवं भक्ति परख दोनो प्रकार की
व्याख्यायें हैं। जीव दोनो की समन्वित दृष्टि से संसार को देखे-यही उपदेश है।
भक्त के लिए जगत आनन्द रूप तथा ज्ञानी के लिए विवर्त रूप है।


जिनि नटवै नटसरी साजी, जो खेलै सो दीसै बाजी।
मो बपारा थै जोगति ढाठी, सिव बिरचि नारद नहीं दीठी॥
आदि अति जो लीन भये है, सहजै जांनि सतोखि रहे हैं।
सहजै राम नाम ल्यौ लाई, राम नाम कहि भगति दिढाई॥
राम नाम जाका मन माना, तिल तौ निज सरूप पहिचाना।
निज सरूप निरंजना, निराकार अयरपार अपार।
राम नाम ल्यौ लाइस जियरे, जिनि भूलै बिस्तार॥

शब्दार्थ --- नरसरी = नाट्यशलसृष्टि। नटवै = नट, सुजक। दीसै=
दृष्टिगत होता है। वाजी = किसी किसी को। दिढाई = द्रुढ करना। वयर =
बेचारा।

संदर्भ --- कबीर जगत की अनिवर्चनीयता का वर्णन करते हैं।

भावार्थ --- जिस सर्जन कर्ता ने इस जगतरूपी नाट्यशाला की रचना की
है और इसमे वह जो लीला करता है वह किसी को ही दृष्टिगत होती है।