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[कबीर
मै बेचारा तो किनमे हुँ। । मै तो इन्ही अँन्खो से इस जगत को देखता हुँ। शिव,ब्रम्हा तथा नारद सरीखे दृष्टि वाले भी इस्को नही जान पाए है। वे तो सम्पूर्ण भूतो के आदि एव अंत रूप भगवान मे लीन रहते है ताथा भगवान के सहज रूप का ग्यान करके उसमे संतोष का अनुभव करते है। वे सहग राम नाम मे अपना ध्यान लगा लेते है और निरन्तर राम के नाम स्मरण से अपनी भक्ति को ह्ढ करते रहते है। जिनका मन राम-नाम मे तन्मय हो जाता है,उन्हे आत्म-स्वरूप का साक्षात्कार हो जाता है। कबीर कहते है कि भगवान का स्वरूप तो निरंजन माया रहित है। वह निराकार,अजेय और असीम है।अर्थ हे जीव,तुम राम-नाम मे अपनी लौ लगाओ और इस जगत के पसारे मे भ्रमित हो जाओ। अलंकार-(१)संवंधातिशयोक्ति=सिवॱॱॱॱॱॱॱॱदीठी। (२)रूपकातिशयोक्ति=नटव नटसारी। विशेष - (१)जगत की अनिवर्चनीयता की ओर संकेत है। (२)प्रेम भक्ति के द्वारा ही प्रभु की लीला समझ मे आ सकती है। (५) करि विसतार जग धंध लाया, अंध काया थै पुरिष उपाया ॥ जिहि जैसो मनसा तिहि तैसा भावा,ताकुॱ तैसा किन्ह उपावा । तेतौ माया मोह भुलांनां,खसम राम सो किन्हूं न जांनां ॥ जिनि जांन्यं ते निरमल आंगा,नही जांन्यां ते भये भुजगा । ता मुखि विष आवै विष जाई,ते विष ही विष मै रहा समाई ॥ माता जगत भूत सुधि नांही,भ्रंमि भूले नर आवै जाहीं । जानि वूझि चेते नही अघा,करम जठर करम के फंधा ॥ करम का वाध्या जीयरा,अह निसि आवै जाई । मनसा देही पाइ करि हरि विसरै तौ फिर पीछै पछिताइ॥ शब्दार्थ=वंव लाया-कर्म जाल मे फसा दिया । भुजगा-सपं-विष से पूर्ण अर्थात विषयी । जठर -पेठ । सन्धर्भ=कबीर जगत के प्रपचो मे फंसे हुए जीव का वर्णन करते है । भावर्थ=भगवान ने यह माया का विस्तार करके जगत के लोगो को अनेकानेक धन्धो(कर्म-जाल)मे फंसा दिया है। इस जड शरीर से जीव की उत्पत्ति की है। जिस जीव की जैसी वासना होती है,उसको वैसी ही वस्तुएँ रुचिकर होती है। उनके लिए भगवान ने वैसे ही साधन जुटा दिए है। उन्ही साधनो के अनुरूप वे जीव माया-मोह मे भ्रमित होते रहते है। कोई भी जीवात्मा अपने पती रूप राम को नही जान पाती है। जिन जीवात्माओ ने उन प्रभु को जान लिया अर्थात जिन जीवो के मन मे भगवान का प्रेम उत्पन्न हो जाता है,उनका अन्तःकरण पूर्णतः निर्मल हो जाता है।जो उसे नही जान पाता है,वे सदैव विषपूर्ण संप की तरह विषयी हो बने रहते है उनके आगे से निरन्तर वासना