पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/८६७

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प्रन्थावली]

रूपी विष ही निस्सृत होता रहता है,और जो कुछ उनके मुख मे जाता है,वह भी विष ही बन जाता है।(उनकी समस्त आकांक्षाएँ वासना से विषैली होती है और उनके सम्पूरन भोग एव कार्य वासना के विष मे परिणत होते है।)यह सारा जगत वासना के विष से ग्रस्त होकर उन्मत्त हो रहा है और इन प्राणियो को अपना होश नही है। मनुष्य भ्रम से अपने स्वरूप को भूला हुआ आवागमन के चक्र मे पदा हुआ है। यह अग्यानग्रस्त प्राणी जान बूभ्क कर मोह निद्रा मे फँस गया है और चेतता नही है,और इसी से वह कर्म की जठराग्नि मे जलता है और कर्म के फदो मे फँसा हुआ है। कर्म के बन्धनो मे बंधा हुआ यह जीव रात-दिन(निरन्तर)आवागमन के चक्कर मे घूमता है। वह अपनी अभीप्सित मानव योनि प्राप्त करके भी भगवान को जाता है और अन्त मे पछताता है।

       अलंकार=(१)रूपक-जग घघै,करम जठर,करम के फदा ।
              (२)विरोधाभास-अचॱॱॱॱॱ उपाया ।
              (३)सवधतिशयोक्ति-किनहूं न जाना ।
              (४)रूपकातिशयोक्ति-भुजगा ।
              (५)श्लेष-विप ।
              (६)अनुप्रास-भूत,भमि,भूले ।
   विशेष-(१) माया-मोह ग्रस्त जीव का सजीव चित्रण ह्सि ।
        (२) विषयी जीव के लिये भुजग शब्द का प्रयोग बडा ही अर्थ गर्भित है यह 'विषयी'का परम्परागत गृहीत प्रतीक है।
        (३)साँप को दूध पिलाने से विष मे वृदि होती है। विषयी को विषय-भोग के द्वारा विषयाग्नि मे 

वृद् होती है ।

                         (६)
    तौ करि त्राहि चेति जा अंधा,तार परकीरति भजि चरन गोब्यवा ॥
    उदर कूप तजौ ग्रभ बास, रे जीव रांम नाम अभ्यास ।
    जगि जीवन जैसै लहरि तरगा, खिन सुखः कूॱ भूलसि बहु संगा ॥
    भगाति कौ हीन जीवन कछू नांहीं, उतपति परलै बहुरि समाहीं ।
    भगति हीन उस जीवनं, जन्म मरन बहु काल ।
    आशरम अनेक करसि रे जियरा,राम बिना कोई न करै प्रतिपाल ॥
 शब्दार्थ-त्रही=दैन्यपूर्वक रक्षा की प्रार्थना । परकीरती=अन्य व्यक्तियो की खुशामद । कूप=कुआ ।

अन्धा=घुन्ध,अस्पष्ट दृष्टि वाला ।

  सन्दर्भ-कबीरदासजी कहते है कि राम-भक्ति ही उधार का एकमात्र उपाय है ।
  भावर्थ-हे अस्पष्ट दृष्टि     वाले जीव,चेतना और दीनता पूर्वक भगवान से रक्षा की प्रार्थना कर।अन्य व्यक्तियो की खुशामद तथा अन्य देवताओ की आराधना छोडकर भगवान गोविंदा के चरणो का ध्यान करो । उदर रूपी कुएँ(गर्भ) मे तुमको