पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/८७३

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ग्रन्थावली ] [ ८६६ योनियो मे धुमाते है । यह लीला माया के गहरे पर्दे मे छिपी हुई है, अतः इसके विषय मे कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। बिन्दु तत्त्व अत्यन्त गहन है । वह तनिक भी नहीं दिखाई देता है । यह जीव तत्त्व स्वय ही अपने अज्ञान के कारण आवृत्त रहता है और शास्त्रो के द्वारा (विद्याध्ययन के द्वारा) उसको जाना नही जा सकता है । अज्ञान मे भूला हुआ जीव द्वत भावना के कारण अत्यधिक भयभीत है। अज्ञान की रात अघ कुए के रूप मे गहन से गहनतर होती जा रही है । माया-मोह की घटायें उमड आई है । सशयो के मेढको की टर्र-टर्र, विषयासक्ति की चपलता की चमक एव वासना के अधड की आवाज से जीवन का सम्पूर्ण वातावरण भरा हुआ है। इसमे भय की गर्जना एव विपत्तियो की अखण्ड वर्षा हो रही है । मोह रूपी रात्रि अत्यन्त भयानक हो गई है और चारो ओर अज्ञान का गहरा अधकार छाया हुआ है । भगवान से वियुक्त होकर जीव अनाथ हो गया है । वह इस ससार रूपी जगल मे भटक गया है और उसको इसके पार जाने का मार्ग नहीं मिल रहा है । जीव को स्वय तो ज्ञान नहीं है और वह किसी की कहना भी नही मानता है। इस प्रकार वह जान-बूझ कर अज्ञानी बन कर दुख उठा रहा है । नट अनेक प्रकार के खेल करता है और उनके विषय मे सब कुछ जानता है। कलाकार के गुणो का उसका सहृदय स्वामी ही उसका सम्मान कर पाता है । नट की तरह भगवान भी सबके शरीर के भीतर क्रीडा कर रहे हैं, परन्तु दूसरे उसको कुछ नही समझते है । गुण की पहिचान गुणी ही कर सकता है जिसकी बात होती है, वही उसको समझ पाता है, अन्य अज्ञानी उसको नहीं समझ पाता है। चाहे भला हो चाहे कुरा हो, अवसर आने पर यमराज के द्वारा सव पूरा सम्मान पाते है। दान-पुण्य भी हमारी निराशा के हेतु बनते हैं (क्योकि इनके कारण हमे फल भोगने के लिए जन्म लेना पडता है) पता नहीं, कब तक जीवन की इस नट-विद्या का खेल-खेलना पडेगा। जीवन के जगल' मे मारे-मारे फिरते हुए हमारे पैर टूट गये हैं। भगवान का चरित्र अगम्य है, उसका वर्णन कौन कर सकता है ? देवता, गन्धर्व, मुनि आदि भी भगवान की माया का पार नही पा सके हैं । भगवान अलक्ष्य बने रहकर सबको दुनियाँ के धन्धो मे लगाये रखते हैं। भगवान की लीला मे तो शिव और ब्रह्मा भी भूते हुए है और कोई बेचारा अन्य जीव तो उन्हे किंचित मात्र भी नही जान सकता है । सब जीव दैन्य भाव से पुकार करते हैं कि, हे स्वामी रक्षा करो, रक्षा करो। आपने मुझको करोडो ब्रह्माण्डो मे घुमा दिया है । अनेक जन्मो तक आपने मुझे गूलर के कीडे की भाँति माया मे बन्द रखा है । अब मैंने ईश्वर की उपासना का योग धारण कर लिया है। इसमे न मेरा ध्यान टूटा है और न तप खण्डित हुआ है । सिद्ध साधको ने जो कुछ बताया है, उससे मन और चित्त स्थिर नहीं हो पाता है । आपकी लीला तो अगम्य है । उसका वर्णन करके कोन पार पा सकता है-अर्थात् उसका पूर्णतया वर्णन कोई नहीं कर सकता है । कबीर कहते है कि हे जीव रूपी पक्षी भगवान की खोज में पीछे मत रहे । भगवान तुम अपार हो। जव तक उनका साक्षात्कार नहीं हो जाता है, तब तक