पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/८७४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

उनके वारे में कोई कुछ नहीं कह सकता है | उसके बारे में जो लोग भी बात करते है, वे सव झूठे और अहकारी हैं । अलंकार-") सभच्चा पद यमक-झूठनि झूठ ।

विरोधाभास-भूलि-साव बजाना 

पदमैत्री-धंघ बघ ।

वक्रोक्ति-को जानै । और को जाने है कये को जाने ।
विशेपोक्ति - तप तीरथ " 'नहीं सूझे कांचित आना ।

पुनरुक्ति प्रकाश-करि करि । फिरत फिरत । उपमा-रजनी अघकूप हं । फल कर कीट । राह) सागरूपक-वहाँ का रूपक- दादुर ' " अंधियारा ।

वीणा … याहि याहि, राखि राखि ।
सवधातिशगोक्ति---गण "'न पावा ।
रूपकातिशगोक्ति-खग ।
 विशेष -षटू दरशन न्याय, साख्य, योग पूर्व मीमासा उत्तर मीमत्सा

और वैशेषिक |

आश्रम पट-आश्रमी की सख्या चार ही पानी जाती है । षटू आश्रम

से क्या तात्पर्य हे…कह नहीं सकते '

पटु रस-मधुर, अम्ल, लवण, कटु, कषाय और तिक्त ।
चार वेद-ऋगवेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद । मैं
छ: शास्त्र-घर्म, दर्शन, साहित्य, विज्ञान, व्यदृक्राथा तथा कला

सम्बन्धी ग्रथ |

भगवान का विवेचन-कथन-श्रवण-मनन का विषय नहीं है  वह

सर्वथा अनुभूति गम्य है ।

हरि चरित--. कथन के द्वारा ऐसा लगता है कि कबीर विष्णु को

नंदृर्दहा मानते हैं । आगे चल कर वह इहि वाजी सिव विरक्ति भुलाना कहते हैं यहाँ भी विष्णु का उल्लेख नहीं होता है । सृम्भदृत कबीर राम को विष्णु का अवतार मानते हैं । गोस्वामी तुलसीदास ने भी लिखा है कि--- तासु तेज सपांन प्रभु आनन । हरपे देखि संभु चतुरानन । विष्णु- रूप राम उपस्थित हैं । इसी से गोस्वामीजी केवल शिव और विरच के हर्षित होने की वात कहते है 1 हमारा विचार है कि कबीर वैष्णव तो नहीं थे, परतु उनके ऊपर वैष्णव मत का व्यायापक प्रभाव अवश्य था ।

             (११))

अलख निरंजन लावै" न देई, निरर्भ निराकार है सोई । मुंनि असयूज्जा रूप नहा रेखा, द्रिष्टि अद्रिष्टि छिणी नहीं देखा || बरना अबरन क८यों नहीं जाई, सकल अतीत घट रहमै समाई |