पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/८७६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

आप आप थ जानियै,है पर नाहीं सोइ । कबीर सुपिनै केर धन ज्यूं , जागत हाथि न होइ॥

शब्दार्थ-- मति करि हीन==विवेक शून्य। बधि==बुद्धि। दरवौ==द्र्वौ,कृपा करदो।वाजी==बाजीगर,नट। कोतिग==तमाशा। संदर्भ--पूर्व रमैणी के समान ।

 भावार्थ रे अज्ञानी, तुम इस परम तत्व के स्वरूप को जानते तो हो नही,फिर उनका वर्णन किस प्रकार करते हो?मैंने उसको निर्गुण समझा है और तुमने उसको सगुण के रूप मे जाना है । तुम तो विवेकहीन हो ।तुममे ऐसा कौनसा गुण है जिससे तुम उस परमतत्व के वास्तविक स्वरूप को जान सके हो ?तुम तो माया-मोह और लोभ-लालच के आश्रित हो । हम भी परमतत्व के साक्षात्कार के उपयुक्त गुणो(विवेक वैराग्य,षट सम्पति इत्यादि) से तथा बोध से रहित हैं,फिर भी हमको सद्गुण की कृपा से जैसी जो कुछ(थोडी बहुत) बुद्धि प्राप्त हुई है , उसी के आधार पर हमने परमतत्व के स्वरूप पर विचार किय है। हम जीव मांत्र मतिहीन है।हमे भगवान के स्वरूप को समझने की  युक्ति नही आती है। ईश्वर से अनुग्रह की प्रार्थना करते हुए कबीर कहते है कि हे प्रभु ,जब आप इस जन पर द्रवीभूत होंगे , तभी वह आपके पूणं स्वरूप को प्राप्त हो सकेगा(मेरा मन आपके चरण-कमलो मे ही अनुरक्त है।) तुम चाहे सगुण हो चाहे निर्गुण तुम्ही मुझको ,ज्ञान देने वाले हो । तुम जहाँ भी जिस प्रकार प्रकट होकर अपने आपको अभिव्यक्त कर देते हो, उसी के अनुसार जो जिस रूप मे ही आपके साक्षात्कार के अनुभव को व्यक्त कर देता है , उसके लिए तुम वैसे ही हो । ह्रदय की तत्री वजती है।उसमे नाद उत्पत्र होता है,परन्तु इस तत्री को वजाने वाला कोई दूसरा ही है । जादूगर(नट) नाचता है और दुनिया उसका तमाशा देखती है,परन्तु जो नाचने वाले को नचाता है उसे कोइ नही देख पाता है। हर व्यक्ति उसे अपनी वासना के अनुसार समझता और देखता है,परन्तु वह वास्तव में वैसा नही है। कबीर कहते है कि व्यक्ति की वासना से समझे जाने वाले भगवान का स्वरुप तो स्वप्न के धन के समान है जो जागने पर हाथ नही लगता है।"
अलंकार- १)रूपक- चरन कमल।
       २)उपमा-सुपिने केरि धन ज्यू।
विशेष-१)ततथा के सिद्द्दान्त के आवरण मे भगवान के अनिवर्चनीय स्वरूप(अवाढ्मनसगोचर) का प्रतिपादन है।
     २)गुन निरगुन दाता कबीर एक सच्चे भक्त के रूप मे हमारे सामने आते है-
       
       जो जगदीश वो अति नली जो महोश बड़ भाग।
       तुलसी चाहत जनमि भरि रामचरन अनुराग।