पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/८७८

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[कबीर शशक,खरगोश । दावानल==बन मे लगने वाली अग्नि । पाश==फंदा । काट==कीट,कीडा।

  सदर्भ-कबीर विषयासक्त जीव की दुर्दशा का वर्णन करते है।  
  भावार्थ-जो इस स्वौनवत संसार को सत्य समझते हैं,उन्हे इससे उत्पन्न होने वाले दु खो का ध्यान नही रहता है। रे विवेकहीन जीव,तुम जागते नही हो । अज्ञान की निद्रा मे सो रहे हो । पर मै तो विषय भोग रूपी विषधर सर्प से भयभीत होकर जाग गया हूँ । इस संसार मे मोह रूपी शिकारी वासनारूपी विष मे बुझे हुए भी बाण मार रहा है। मृगया का पूरा रूपक बाँधते हुए कबीरदास कहते है कि काल रूपी शिकारी शाम-सवेरे(हर समय) तैयार खडा है । संसार के समस्त प्राणी उसके मृगया योग्य खरगोश है। यहाँ विपय विकार रूपी दावानल सुलग रहा है । माया-मोह ने इन विकारो को एकन्न करके प्रज्वलित कर दिया है । विषयो के प्रति लोभ (आसक्ति) की भावना पवन रूप होकर इस अग्नि को और भी अधिक प्रज्वलित करने मे सहायक हो रही है । इस संसार रूपी जंगल मे यम के शिकार की चर्चा संपन्न व्याप्त है । इन जीव-रूपी पशु-पक्षियो को घेरने के लिए त्रयताप रूपी यम के दूत चारो ओर फिर रहे है । जीव रूपी पक्षी अब बचकर कहाँ जाएँगे । यम के दूत दिन रात जीव के बालों को पकडे रहते है । जब अपना दबोचना चाहेगे,तभी उस्को खीच कर पकड़ लेंगे । यम का फंदा अत्यन्त कठोर है । उसके समक्ष किसी का वश नही चलता है । हरेक प्राणी को यम के द्वर पर पहुँचकर यातना भोगनी पडती है । इन दु खो की बात सुनकर भी जीव राम का गुणगान नही करता है और मृगतृष्णा रूप मिथ्या विषयो की ओर भगता फिरता है । मृत्यु की ओर किसी का ध्यान नही रहता है ।वहा सान्सारिक विषयो को जो मूलत दुख रूप हैं, सुख रूप माने रहता है । कबीर चेतावनी देते हुए कहते है कि रे अभागे,तुम स्म्पूर्ण सुखो के मूल भगवान को तो पचानते नही हो,उनको पहचाने बिना तुमको दुःख घेरे ही रहेगे । जिस प्रकार नीम के कीडे को नीम का कडुआ रस ही प्रिय लगता है,उसी प्रकार विपयी जन विषरोप विषयो को अमृत रूप कहते है । मोह ग्रस्त संसारी जीवो के लिए विष और अमृत को समान समझ लिया है । जिन विवेकी जन ने भगवान के आनन्द स्वरूप (प्रेम) को विषयो से पृथक करके समझ लिया है,वे ही वस्तुत सुख के भागी बनते है । विषयो का रज्य (महत्व) आयु के साथ दिनोदिन क्षीण होता जाता है,परन्तु फिर भी जीव ईशवर-प्रेम के अमृत को छोडकर स्वभाववश विषयो के विष का सेवन करता है। जो जीव जान-बूझकर अथवा धोखे से विषयो के विष को खाते है।वे भवसागर की लहरो मे पडे हुए पुकारते रहते है । विषयो के सेवन मे क्या गुण है (यह मेरे समझ मे तो आता नही है) जो ज्ञान शून्य है,वे ही इन त्रिपयो मे लिप्त होते है । कुम्हन्ना कर जीव धीरे धीरे विषयो की आशा (आसक्ति) मे झुलगता रहता है । वागना रूपी काजी यद्यपि बहुत ही स्वल्प है, तथापि वह जीव के आनन्द स्वरूप रूपी दूध को फाड देती है अर्थात उसके आनन्द को मिटा