पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/८८०

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५७६ ] [कबीर

    रे रे मन मोहि ब्यौरि कहि, हौ तत पूछौ तोहि ।
    संसै सूल सबै भई, समझाई कहि मोहि॥
 शब्दार्थ--बुधिवत==बुध्दिमान । सयान==चतुर । वौराई==पागल, मूर्ख ।

व्यौरि==व्योरा । करूँ == कडुआ ।

  संदर्भ--कबीरदास आत्मालोचन द्वारा विवेकपूर्णा  पथ निर्धारित करते है ।
  भावार्थ--हे मन तुम बुध्दिमान हो, तथा ज्ञान के भण्डार हो । तुम स्वय्ं अपने आप ही विचार 

करो । जीवो मे कौन चतुर है और कौन पागल अथवा मूर्ख है-- वह जो विषयो मे अनुरत्क है अथवा वह जो ईश्वराभिमुख है । कौन से कर्म दुःख के हेतु है और किन कर्मो से दुःख की निवृति होती है? किस मे हर्ष है,किसमे विषाद है? किसे अहित समझे और किसे हित माने ? कौन वस्तु सार है और कोन निस्सार है ?कोन प्रेम शून्य है और कौन प्रेम करने वाला है ? क्या सत्य है और क्या मिथ्या है । जीवन की कौन सी अनुभूति कडुवी है और कौन सी अनुभूति मधुर है? कौन वस्तुत दु खो से जल रहा है और कौन सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करता है ? कौन से कर्म मुक्ति के हेतु बनते है और किन कर्मो के करने से गले मे फदा पडता है ? जीवन के मूल तत्व एंव प्रयोजन के इन प्रश्नों पर तुम स्वंय विचार करके मुझे वताओ । रे मन, मै तुमसे तत्व की बात पूछ रहा हूँ । संशय मेरे लिए शून्य हो गये है । तुम मुझे को समझाकर व्यौरेवार बताओ ।

   अलंकार--(१) वीप्सा--रे रे । 
           (२)प्रभंग पद यमक-- अनहित हित । 
                      ( १५ )

सुंनि हसा मै कहूँ बिचारी, त्रिजुग जोनि सबै अधियारी ॥ मनिषा जन्म उत्तिम जौ पावा, जांनू रांम तौ सयांन कहावा ॥ नही चेतै तौ जनम गंमावा, परयौ बिहांन जन फ़िरि पछातावा ॥ सुख करि मुल भगति जौ जांनै, और सवै दुख या दिन आंनै ॥ अंमृत केवल रांम पियारा, और सवै विष के भडारा ॥ हरिख आहि जो रमियै रांम,और सुवै विसमा के कांमां ॥ सार आहि सगति निरवांनां, और सवै असार करि जांना ॥ अनहित आहि सफल संसारा, हित करि जांनिये रांम पियारा ॥ साच सोई जे थिरह रहाई, उपजै बिनसै झूठ जाई ॥ मीठा सो जो सहजै पावा, अति कलेस थै करू कहावा ॥ नां जरिय नां कीजं मे मेरा, तहाँ अनंद जहां राम निहोरा ॥ मुकति सोज आपा पर जांनै, सो पद कहां जु भरमि भुलानै ॥

   प्रांननाथ जग जोवनां, दुरलभ राम पियार ।
   सुत सरीर धन प्रग्रह कबीर, जीयेरे तव्ंर पंख बसियार ॥