पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/८८३

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प्रत्यावली ] [ए७६

है । विषय-सुख के थोडे़ से लाभ के लिए तुमने सव-स्वरुप प्रतिष्ठा(चैतन्य स्वरूप)
रूपी माणिक को गवाँ दिया है।मैं और 'मेरी करते हुए तुमने अपने आपको बहुत

वर्वाद किया है।माता के गर्भ मे सोते सोदे हुए तेरा जम्न व्यतीत हो गया अर्थत् विभित्र जनम घारण करते समय तुमको अनेक बार गर्भ-वास करना पडा और इस प्र्कार माता के उदर मे सोते हुए तुम्हारे जन्म का अधिकाश भाग व्यतीत हो गया । तिभित्र योनियो मे तुमने बहुत से वेप और रूप घारण किए। वृदधावस्था, मृत्यु तथा क्रोघ तेरे शरीरो को क्षीण करते रहे।तुम जन्म लेते हो,मरते हो तथा अनेक योनियो मे भटकते फिरते हो परन्तु आनन्द के मूल स्रोथ्त अपने शुद्ध् स्वरूप अथवा ईश्वर प्रेम की और उन्मुख नही होते हो।यह जीव अनेक दु खो एव स्तापो को भोगता है ,परन्तु इसको उस परम तत्व का साक्षत्कार नही हुआ है,जो इस्के समस्त दु खो को दूर कर देगा।

             रे भाई,यह जीव जिन विषयो को मगलकारी समझ कर उनसे प्रेम करता
रहा है, जिनके लिये,यह जिया है, वे इसका अमगल करके नष्ट होते रहे है।अपने
और 'पराये' के राग दध्ष मे फस कर यह जीव अपार सतापो मे जलता रहा  है
और  मृगतृष्णा रूपी झूठे ससार के पीछे भटकता ही रहा है । यह  झूठे माया-मोह
मे ही फसा रहा है । यहाँ इस लोक मे क्या हुआ और आगे आगे (परलोक मे) क्या
होगा,इसकी इसको बिलकुल चिंता नही है । रे जीव अब भी चेत जा और आँखे
खोल कर वास्तविकता को देख । तुमको यह मनुष्य शरीर फिर नही मिलेगा ।
जीवन का सार यही है कि राम-प्रेम की अनुभूति बनी रहे । इसके लिए कोई
विशिष्ट  अवसर नही चाहिए ।