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[कबीर
तत्व को पहुचानने पर ही जीव का आत्म-वोध जागा,विवेक हुआ ओर फिर उसी मे उसका मन लग गया। इस भव सागर को पार करने के लिए भावभक्ति अथवा इश्वर-प्रेम ही नोका है तथा सद्गुरु ही इस नौवा को खेने वाले केवट ह्ँ। जब ईश्वर की कृपा होने पर यहा भवसागर गोपद-खुर के समान प्रतीत होने लगे तब समझ लेना चाहिए की यह भवसागर अल्प (ससीम) है और तब यह दुलध्य नही रह जाता है।
अलकार - (१)वीप्सा-रे रे। (२) रुपकातिशयोक्ति-मानिक । (३)विरोधाभास-जेहि हित विलाई। (४)सभग पद यमक-हित अनहित। (५)रुपक -मृगतृष्णा ससारा।भौ सागर । (६) पुनरुक्ति प्रकाश-कछु कछु। मुरछि मुरछि। विशेषोक्ति की व्य जना-पिछले सिराई। (८)वकोक्ति- काहे न मानियँ। (९)उपमा-सताप सुपन करि। (१०)यमक-आप आप। (११)सवधातिशयोक्ति-कथ्यौ नहि जाई। (१२)साग रुपक-भाव भगति बिस्तार। विशेष-इस रमैणी की भाव-व्यजना पर वेदान्तियो के कथन 'ब्रहा सत्वं
जगन्मिरया' का गहरा प्रभाव है।
[४] दुपदी रमैंणी (२७) भया दयाल विषहर जरि जागा, गहगहान प्रेम बहु लागा। भया अनद जीव भये उल्हासा,मिले रांम मनि पूगी आसा॥ मास असाढ़ रवि घरनि जरावै,जरत जरत जल आइ बुजावै। रुति सुभाइ जिमों सव जागी,अंमृत घार होइ झर लागी॥ जिमों मांहि उठी हरियाई,विरहनि पीव मिले जन जाई। मनिकां मनि के भये उछाहा,कारनि कौन विसारी नाहा॥ खेल तुम्हारा मरन भया मोरा,चौरासी लख कीन्हां फेरा। सेवग सुत जे होइ अनिआई,गुन ओगुन सब तुम्हि समाई ॥ दरवो नहीं कांइ तुम्ह नाहा, तुम्ह विछुरे मे वहु दुख चाहा॥ प्रेघ न बरिखे जांहि उदासा,तऊ न सारंग सागर आसा। जलहव भरयो ताहि नही भावै,के मरि जाइ के उहे पियावै ॥ मिलहु रांम मनि पुरहु आसा,तुम्ह विछुरयां मौं सकल निरासा ।