पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/८८५

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ग्रन्यावली ]

        मैं रनिरासी जब निध्य पाई,रांम नांम जीव जाग्या जाई ॥
        नलिनीं  कै  ज्यू नीर अधारा, खिन बिछुरयां थै रवि प्रजारा ।
        रांम बिनां जीव बहुत दुख पावै, मन पतग जगि अधिक जरावै ॥
         माघ मास रुति कवलि तुसारा, भयौ बसत तब बाग सभारा । 
          अपनै रगि सब कोह राता, मधूकर बास लेहि मैमंता ॥
       बन कोकिला नाद गहगहांना, रुति बसंत सब के मनि मानां ।
       बिरहन्य रजनी जुग प्रति भइया, बिन पीव मिले कलप टलि गइया ।।
         आतमां चेति समभ्कि जीव जाई, वाजी झुठ रांम निधि पाई ।
      भया दयाल निति बाजी बाजा, सहजै रांम नांम मन राजा ।।
         जरत जरत जल पाइया, सुख सागर कर मूल ।
         गुर प्रसावि कबीर कहि, भागी संसै सूल ।।
  शब्दार्थ-गहगहान = गहन, घना । पूगी-पुनण - हुई । घदासा = उदासा,
  उदासीन । जलहर = जलाशय । रनिरासो= निराश रक । पतग - सूर्य । मैमता= 
  मस्त । वाजी=सृष्टि का खेल ।

सन्दर्भ--कबीर सिद्धावस्था का वर्णन करते हैं । भावार्थ --भगवान की कृपा हो गई, फलस्वरूप विषय रूपी जहरीला सपै भस्म होगया और जीव जग गया, और वह गहन ईश्वर प्रेम से पूर्ण होगया । आनद छा गया और जीव उसमे मग्न हो गया । राम का साक्षात्कार हो गया और उसके मन की आकाक्षा पूर्ण हो गई । ज्ञान-विरह के आषाढ मास में मिलन की तीव्र आकाक्षा के सूर्य ने जीव के चैतन्य रूपी धरा को अत्यधिक सतप्त कर दिया था । वह निरन्तर जल रहा था । भगवान की कृपा के जल ने बरस कर उसको शात कर दिया । प्रेम की सुन्दर वर्षा ऋतु मे सम्पूर्ण पृथ्वी (सृष्टि) प्रेमोल्लास में जाग उठी और उस समय चारो ओर अमृत की धारा की झडी लग गई (जीव को एक दम नवीन दृष्टि प्राप्त हो गई-उसकी ऋतु बदल गई । पृथ्वी में हरियाली प्रकट हो गई अर्थात् जीव को सम्पूण सृष्टि आनन्दमय दिखाई देने लगी । विरहिणी जीवात्मा को मानों उसके प्रियतम भगवान मिल गये हैं । मन ही मन में उत्सव होने लगा । जीवात्मा ने परमात्मा से कहा कि हे नाथ । आपने मुझको किस कारण क्या भुला दिया था । तुम्हारे लिए तो यह विरह और मिलन (जन्म और मृत्यु) खेल (लीला) है, परन्तु मैं तो इसमे परेशान होकर मर ली । तुम्हारी इस लीला के कारण मुझे तो चौरासी लाख योनियों मे भटकना पडा । सेवक और पुत्र से जो भी अनुचित कृत्य हो जाता है, उसके गुण और अवगुण सब कुछ आपकी ही सामर्था के फलस्वरूप हैं अथवा सब आपके ही हैं । उनका यश-अपयश सब आपका ही है । है स्वामी, मैं अपने अवगुणों का वस्गंन नही कर सकती हू । मेरा सबसे बडा दुर्भाग्य यही है कि आपने मेरी सभाल नहीं की अर्थात् मुझको- भुला दिया । हे स्वामी, तुम मेरे ऊपर द्रवित क्यों नहीं होते हो, आपसे विछुड कर मैंने वहुत दु:ख पाए हूँ । आपके प्रेम के