पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/८८६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

८८२ ] [ कबीर

बादल मुझ् कर बरस्ते नही है और मेरे प्रति उदासीन रहते हुए चले जाते है। परन्तु मेरा चित्त रूपी चातक ससार के विपय रुपी समुद्र के जल द्वारा अपनी प्यास बुझाने की आशा नही करता है। विषय सुखो से भरा हुआ यह सन्सार-समुद्र उसको अच्छा नही लगता है।वह प्यास के कारण भले ही मर जाए,परन्तु पिएगा तभी जब आप प्रेम की स्वाति बून्द पिलाएगे। हे प्रियतम, आप मिले और मेरा मनोरथ पूरा कर दें। तुम्हारे वियोग मे अत्यन्त निराश हो गया हू। मै निराश रंक तभी अमित सम्पत्ति की प्राव्ति समझूंगा जब आप मे मेरा मन् पूर्ण रूपेण् रम जयेगा। जिस प्र्कार कमलिनी का एकमत्र अवलम्ब जल होता है, उससे पल भर भी वियुत्क् हो जाने पर सूर्य का ताप उसे जला देत है, वैसे ही जीवात्मा अपने प्र्राणधार राम के प्रेम से वचित होकर अत्यधिक दुख का अनूभव करती है।वासनात्मक मन रूपी सूयं अधिक तीक्ष्ण् होकर जीवात्मा रूपी कमलीनी को जलाने लगता है। मोह रूपी माघ मास की जडता ने जीवात्मा रूपी कमलीनी पर तुषापारात किया परन्तु ईश्वर प्रेम रूपी वसतं की उष्ण्ता ने(जाग्र्त होकर्)जीवन-वन की रक्षा कर ली। अन्त्: करण की सदवृतियँ अपने-अपने अनूरूप उस प्रेम मे अनुरुत्त हो गयी है। मन रूपी मधुकर प्रेम-परिमल मे मस्त हो गया । उस चैतन्या रूपी विकसित वान मे चित्त वृति रूपी कोकिल का गहन म्धुर संगीत गुंजारित होने लगा । इस प्रकार प्रेम की इस वसत ऋतु शरीर की सम्पूणॅ व्रित्तियो को उल्ल्सीत कर दिया।जीवात्मा रूपी विरहिणी की एक-एक रात युगो के समान हो गई थी। उनको प्रियतम से बिना मिले हुए अनेक कल्प बीत गये थे।अब आत्मा को बोध हुआ है-जीव ने रह्स्य को समझ लिया है।उसने इस जगत के खेल को मिय्या समझलिया है और उस्को भग्वान राम के प्रेम की अमूल्य निधि प्राप्त हो गयी है।अब भगवान की कृपा हो गई है और चारो ओर प्रेम-स्ंगीत सुनाई दे रहा है-आनन्द ही आनन्द है।(हृदय मे अनहदनाद का मधुर सगीत सुनाई दे रहा है)भगवान राम सहज रूप से उस्के ह्रिदय के राजा हो गए है अर्थात भगवान के प्रति उसके मन मे सहज स्वभाविक भत्कि उत्पन्न हो गई है।विषय-वासनाओ अथवा प्रभु विरह मे जलती रहने वाली जीवात्मा को मम्पूर्ण सुखो के मूल प्रेम-जल की प्राप्ति हो गयी है।कबीरदास कह्ते है कि यह सब गुरु की कृपा का फल है। अब मेरे मोह एव्ं अग्यान जनित सशय और कष्ट समाप्त हो गए है।

   अलकार-(i)रूपकातिशयोत्ति-विषहर।
         (ii)विरोधाभाष की व्य्ंजना-जरि जाग,खेल  मोरा।
         (iii)साग रूपक-मासजाई,मेध पियावै,मध माना ।
         (iv)सभग पद यमक-गुन-औगुन
          (v)अतिशयोत्ति- अपनेपारा।
         (vi)उदाहरण-नलिनीप्र्जारा।
        (vii)रूपक-मन पतंग,जल मूल।