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ग्रन्थावली]
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करन चहड रघुपति गुन गाहा। लघु मति मोरि चरित अवगाहा।

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मति अति नीच ऊँचि रुचि पाछी। चहिअ अमिय जग जुरइ न छाछी।

इत्यादि।
(गोस्वामी तुलसीदास)
 

(१९)

जिहि दुरमति डोल्यौ संसारा, परे असूझि वार नही पारा॥
बिख अमृत एकै करि लीन्हां, जिनि चीन्हां सुख तिहकू हरि दींन्हां॥
सुख दुख जिनि चीन्हां नहीं जानां, ग्रासे काल सोग रुति मांनां॥
होइ पतंग दीपक मैं परई, झूठैं स्वादि लागि जीव जरई॥
कर गहि दीपक परहि जु कूपा, यहु अचिरज हम देखि अनूपा॥
ग्यांनहीन ओछो मति बाधा,सुखा साध करतूति असाधा॥
दरसन समि कछू साध न होई, गुर समांन पूजिये सिध सोई॥
भेष कहा जे बुधि बिसूधा बिन परचै जग बूड़नि बूड़ा॥
जदपि रबि कहिये सुर आही, झूठे रबि लीन्हा सुर चाही॥
कबहुँ हुतासन होइ जराबै कबहूँ अखंड धार वरिषावै॥
कबहूँ सोत काल करि राखा, तिहू प्रकार दुःख देखा॥
ताकू सेवि मूढ़ सुख पावै, दौरे लाभ कूं मूल गवावै॥
अछित राज दिने दिन होई, दिवस सिराइ जनम गये खोई॥
मृत काल किनहूँ नहीं देखा, माया मोह धन अगम अलेखा॥
झूठै झूठ रह्यौ उरझाई, साचा अलख जग लख्या न जाई॥
साचै नियरै झूठे दूरी, विष कूँ कहै संजीवन मूरी॥

शब्दार्थ—दुरमति = कुबुद्धिवाले, दुर्बुद्ध लोग। डोल्यौ = भटकते फिरते हैं। रुति = रुचि, अनुरक्ति। बाधा = आबद्ध। साध = साधु। असाधा = असाधु, दुष्ट। विसुधा = विकृत हो जाए। संजीवनी = जीवन देने वाली।

सन्दर्भ—कबीर मोह-भ्रम गुप्त अज्ञानी जन का वर्णन करते है।

भावार्थ—जो दुर्बुद्धि वाले व्यक्ति इस संसार के माया जाल में भटकते रहते हैं, उनके लिए इस भवसागर का आर-पार नहीं है। ऐसे व्यक्ति विषयासक्ति रूपी विष और ईश्वर प्रेम रूपी अमृत में कोई भेद नहीं समझते हैं। जो इस भेद को जान लेते हैं, उनको भगवान आनन्द प्रदान करते हैं। जो ईश्वर-प्रेम के सुख तथा विषयों के दुःख के अन्तर को नहीं समझ पाए हैं, वे काल से ग्रसित रहे तथा उन्होंने शोक को स्वीकार किया। ऐसे व्यक्ति मिथ्या विषय भोग के आनन्द के पीछे पतंगों की भांति विषय-वासना के दीपक में पड़ते हैं और नष्ट होते हैं। हमने यह एक अनोखा आश्चर्य देखा है कि व्यक्ति अपने हाथ में ज्ञान का दीपक होने पर भी विषयों के कुएँ में गिरते है। ऐसे ज्ञानहीन व्यक्ति ओछी बुद्धि (कुबुद्धि) द्वारा आबद्ध रहते हैं। वे चेहरे से (देखने में) साधु लगते हैं, परन्तु कर्मों से असाधु