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[कबीर की साखी
 

हुई और अपने अज्ञान के अन्धकार में मग्न शिष्य का उद्धार किया। (५) मेरा से तात्पर्य है "बेढा।" यहाँ बेडा से तात्पर्य है लोक वेदानुमोदित मार्ग, या माया वेडा। (६) 'जरजरा'—से तात्पर्य है जर्जर, क्षीण, विनाशशील मग्न प्राय (७) "फरकि" से तात्पर्य है फड़क कर, या फांव कर।

शब्दार्थ— परि = पर, परन्तु। ऊबरै = उबरे, उद्धार हुआ। मेरा = बेड़ा जरज़रा = जर्जर। ऊतरि = उतर।

गुर गोविंद तौ एक है, दूजा यहु आकार।
आपा मेट जीवत मरै, तौ पावै करतार॥२६॥

सौंदर्भ—गुरु और गोविन्द एक हैं, अभिन्न हैं। गुरु और गोविन्द से भिन्न जो कुछ है वह माया या भ्रम है। प्रेम रस पान करना सरल नहीं है। अहं के जीवित रहते ब्रह्मानुभूति असम्भव है। प्रेम के मार्ग में अहं सबसे बड़ा बाधक है। कबीर ने सच कहा है "पीया चाहै प्रेम रस राखा चाहै मान। एक म्यान में दो खड़ग देखा सुना न कान।"

भावार्थ—गुरु और गोविन्द में अन्तर नहीं है। दोनों एक हैं। उनसे जो कुछ भी भिन्न है वह आकार या माया है। यदि जीते-जी (जीवित रहते हुए) अन्त का (मानव) परित्याग कर देते हैं, ब्रह्मानुभूति से सम्भावित है।

विशेष—प्रस्तुत साखी में कबीर ने दो भावों की अभिव्यक्ति की है। प्रथम यह कि सतगुरु और ब्रह्म अभिन्न है। सन्त, साहित्य में यह भाव अनेक बार बड़े उत्साह के साथ व्यक्त किए जाते हैं। द्वितीय भाव यह है कि अहं ब्रह्मानुभूति = या आत्मानुभूति में बाधक होती है। प्रेम एवं ब्रह्माराधना के मार्ग में अहं विनाशकारी। कबीर ने बारम्बार कहा है "यहु तौ घर है प्रेम का खाला का घर नांहि। सीस उतारै भुंई धरै पैठे घर माहिं।

शब्दार्थ— दूजा = दूसरा, द्वैत। आकार = माया। आपा = अंह। करतार =ब्रह्म।

कबीर सतगुर नां मिल्याँ, रही अधूरी सीप।
स्वाँग जती का परि करि, घरि घरि मांगैं भीष॥२७॥

सन्दर्भ—प्रस्तुत साखी में अपने युग की दुर्व्यवस्था और कुप्रवृत्तियों के प्रति कवि की प्रतिक्रिया अंकित की गई है। संत-साहित्य में तत्कालीन सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक परिस्थितियों के प्रति चेतना के दर्शन होते हैं।