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[कबीर
 


(दुष्ट) होते हैं। तत्त्व-दर्शन के समान कुछ भी साध्य (प्राप्तव्य) नहीं है। गुरु के समान जिसकी पूजा होने लगती है, वही वास्तव में सिद्ध पुरुष है। इस वेष का क्या लाभ है जिसमें बुद्धि मोह ग्रस्त एवं मलीन हो जाय? परम तत्त्व से परिचय के अभाव में यह जगत मोह में डूबा हुआ है। यद्यपि यह कहा जाता है कि सूर्य देवता परम तत्त्व हैं। पर वह तो झूठा देवता है। व्यक्ति चाहता है। वह सूर्य कभी तो आग बन कर जलाता है और कभी अखण्ड वर्षा की धारा बहाता है। और कभी अत्यन्त ठंडक (शीतकाल) का समय इन तीनों स्थितियों (गर्मी, वर्षा, जाड़ा) में बहुत दुःख है। ऐसे दुःखदायी एवं झूठे देवता की आराधना करना। मूर्ख क्या कभी सुख प्राप्त कर सकता है? वे लाभ के लिए दौड़ते है, और अपनी गांठ की पूँजी (अपना सहज आनन्द स्वरूप) भी गवाँ बैठते है। विषयों का यह राज्य दिनों-दिन क्षीण हो रहा है। दिन बीतते जा रहे हैं और जन्म व्यर्थ जा रहा है। मृत्यु की ओर किसी का ध्यान नहीं है। माया, मोह, धन (सांसारिक आकर्षण) का कोई हिसाब नहीं है—वे अगम्य एव अनिर्वचनीय हैं—उनकी कोई सीमा नहीं है। जीव मिथ्या वासनाओं वाले इस मिथ्या संसार में ही उलझा हुआ है। सत्य एवं अलक्ष परम तत्त्व को जगत के लोग देखने का प्रयत्न ही नहीं करते हैं। ईश्वर के प्रति सच्ची निष्ठा वाले जीव के लिए वह परम हैं। ईश्वर के प्रति सच्ची निष्ठा वाले जीव के लिए वह परम तत्त्व, अत्यन्त निकट है और जो मिथ्या वासनाओं से ग्रस्त है, उसके लिए वह परम तत्व दूर है। परन्तु (दुर्भाग्य तो यह है कि) यह मोह ग्रस्त जीव वासनाओं के विष को ही संजीवनी बूटी मान बैठता है।

अलंकार—(i) विरोधाभास—कर गहि....कूपा‌।
(ii) रूपकातिशयोक्ति—दीपक कूपा।
(iii) छेकानुप्रास—अचरज अनूपा।
(iv) विषम—मुखा.... असाधा।
(v) अनन्वय की व्यंजना—दरसन.... होई।
(vi) वृत्यानुप्रास—समि साध समान सिध सोई।
(vii) गुढोक्ति—भेष कहा......विसुधा।
(viii) विरोधाभास—विष कूं......भूरी

विशेष—उपलक्षणा पद्धति पर वाह्याचार का विरोध है।

(२०)

कथ्यौ न जाइ नियरै अरु दूरी, सकल अतीत रह्या घट पूरी॥
जहा देखौं तहां रांम समांनां, तुम्ह बिन ठौर और नहीं आनां॥
जदपि रह्या सकल घट पूरी, भाव बिनां अभि अतरि दूरी॥
लोभ पाप दोऊजरं निरासा, झूठं झूठं झूठि लागि रहो आसा॥
जहुवां ह्वै निज प्रगट बजावा, सुख संतोष तहां हम पावा॥