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[कबीर
 


(iv) रूपक—निरासा।
(v) यमक—झूठै झूठै।
(vi) अगुप्रास—झूठे झूठै झूठ।
(vii) उदाहरण—नित उठि...निवासा। जारै ...होई।
(viii) वक्रोक्ति—बिना......जाई।
(x) तद्गुण—अग्नि सम करई।

विशेष—(i) परमतत्व की अनिवर्चनीयता एवं सर्वव्यापकता का निरूपण है।

(ii) सर्व घट वासी प्रभु को काष्ठ में व्याप्त अग्नि के समान बताकर कबीर ने एक दुरूह विषय को सहज ही हृदयगम्य कर दिया है। यहाँ पर इन्होंने 'अद्वैत वादियों की भाँति' काष्ठवह्नि न्याय द्वारा ब्रह्म के स्वरूप को स्पष्ट किया है।

(गोस्वामी तुलसीदास ने भी लिखा है)

एक दारुगत देखिअ एकू। पावक सम जुग ब्रह्म विबेकू।

(२१)

इन दोऊ संसार भुलावा, इहके लागे ग्यांन गंवावा॥
इनकौ मरम पै सोई बिचारी, सदा आनद लै लीन मुरारी॥
ग्यांन द्रिष्ठि निज पेखै जोई, इनका चरित जांनै पै सोई।
ज्यू रजनी रज देखत अंधियारी, डसे भुवंगम बिन उजियारी।
तारे अगिनत गुनहि अपारा, तऊ कछू नहीं होत अधारा॥
झूठ देखि जीव अधिक डराई, बिनां भुवगम डसी दुनियांई॥
झूठै झूठै लागि रही आसा, जेठ मास जैसे कुरंग पियासा॥
इक त्रिषांवंत दह दिसि फिरि आवै, झूठै लगा नीर न पावै॥
इक त्रिषावंत अरु जाइ जराई, झूठी आस लागि मरि जाई॥
नीझर नीर जांनि परहरिया, करम के बांधे लालच करिया॥
कहै मोर कछू आहि न वाही, भरम करम दोऊ मति गवाई॥
भरम करम दोऊ मति परहरिया, झूठै नांऊ साच ले धरिया॥
रजनी गत भई रवि परकासा, भरम करम धू केर विनासा॥
रवि प्रकास तारे गुन खोनां, आचार व्योहार सब भये मलीना॥
विष के दाधे विष नहीं भावै, जरत जरत सुखसागर पावै॥

शब्दार्थ—दोऊ= माया मोह। लागें = इनके कारण। देख = देखै। रज = ज्योति प्रकाश। निझर = निर्झर = आनन्द का निर्झर।

संदर्भ—कबीर कहते है कि अज्ञान एवं दुःख ग्रस्त जीव को अन्तत ज्ञान एवं प्रकाश की प्राप्ति हो जाती है।

भावार्थ—माया-मोह इन दोनों में फंस कर यह अपने आत्म स्वरूप को भुल जाता है। इन दोनों बातों के रहस्य पर जो चिंतन करता है, वह परमतत्त्व में लीन