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[कबीर
 

हुए जीव अपनी भूलो से सीखता जाता है, क्रमशः विकसित होता जाता है और ज्ञानान्धकार से मुक्त हो जाता है। विषयी जीव स्वयं विषयों से विरक्त हो जाता है और अन्तत परम तत्त्व को प्राप्त कर लेता।

विषय-दग्ध जीव की स्थिति दूध से जले हुए उस व्यक्ति के समान हो जाती है जो छाछ को फूंक फूंक कर पीता है। भ्रम जनित रज्जु सर्प से दशित व्यक्ति लोक-व्यवहार में भी रस्सी को सर्प समझने लगता है। जो तुलसीदास सर्प को रस्सी समझकर प्रियतमा की अट्टालिका पर चढ़ गये थे, उन्हीं तुलसी ने प्रत्येक रस्सी को सर्प समझ कर छोड़ दिया था।

(ii) झूठ देखि... .. दुनियाई—समभाव के लिए देखे—

केशव कहि न जाइ का कहिये।

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सून्य भीति पर चित्र, रंग नहि तनु बिनु लिखा चितेरे।

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रविकर-नीर वसै अति दारुन, मकर रूप तेहिं माहीं।
वदन हीन सो ग्रसै चराचर, पान करन जे जाहीं।
कोउ कह सत्य, झूठ कह कोऊ, जुगल प्रबल कोउ मानै।
तुलसिदास परिहरै तीनि भ्रम सो आपन पहिचान।

(गोस्वामी तुलसीदास)

(२२)

अनित झूठ दिन धावै आसा, अध दुरगंध सहै दुख त्रासा॥
इक त्रिषावत दुसरै रवि तपई, दह दिसि ज्वाला चहँ दिसि जाई॥
करि सनमुखि जब ग्यान विचारी, सनमुखि परिया अगति मझारी॥
गछत गछत जब आगै आवा, बिंब उनमाँन ढिबुवा इक पावा॥
सीतल सरीर तन रह्या समाई, तहां छाड़ि कत दाऊझै जाई॥
यूं मन बारूनि भया हंमारा, दाधा दुख कलेस संसारा॥
जरत फिरे चौरासी लेखा, सुख कर मूल किनहूँ नहीं देखा॥
जाकें छाडें भये अनाथा, भूलि परै नहीं पावै पंथा॥
अछे अभि अंतरि नियरै दूरी, बिन चीन्ह्यां क्यूं पाइये मूरी॥
जा बिन हंस, बहुत दुःख पावा, जरत गुरि रांम मिलावा॥
मिल्या रांम रह्या सहजि समाई, खिन बिछुर्या जीव उरझै जाई॥
जा मिलियां तै फीजै बधाई, परमानंद रैनि दिन गाई॥
सखी सहेली लीन्ह बुलाई, रुति परमानद भेटियै जाई॥
सखी सहेली करहि अनदू, हित करि भेटे परमानंदू॥
चली सखी जहुँवां निज रांमा, भये उछाह जाड़े सब कामां॥
जांनू कि मोरै सरस बसता, मैं बलि जांऊ तोरि भगवता॥