पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/८९५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
ग्रन्थावली]
[८९१
 


भगति हेत गावै लैलीनां, ज्यूं बन नाद कोकिला कीन्हां॥
बाजै संख सबद घुनि बेनां तत मन चित हरि गोबिंद लीनां॥
चल अचल पांइन पगुरनी, मधुकरि ज्यूं लेहि अघरनीं॥
सावज सीह रहे सब मांची, चद अरु सूर रहे रथ खांची।
गण गंध्रप मुनि जोवै देवा, आरति करि करि बिनवे सेवा॥
बास गयद्र ब्रह्मा करै आसा, हम क्यूं चित दुर्लभ रांम दासा॥

शब्दार्थ—अनिल = पवन। अध = अधड, आधी। तृषावत = प्यासा, पानी का इच्छुक। मझारी = मध्य। गछत गछत = चलते-चलते। बिंब = दो, योग्यता एवं शक्ति। ढिडवा = गडढा। बारूनि = वारुणि = मदिरा।

सन्दर्भ—कबीरदास ज्ञानोदय की दशा का वर्णन करते हैं।

भावार्थ—पवन दिन भर झूँठी आशा में भटकता रहता है। वह अधड़ बना हुआ दुर्गन्ध से परिपूर्ण अनेक प्रकार के दुःखों एवं कष्टों को सहन करता रहता है। एक तो प्यासा रहता है और दूसरे सूर्य उसको अत्यधिक तप्त करता रहता है। उसको दसों दिशाओं में (सर्वत्र) अग्नि का सामना करना पड़ता है और इस प्रकार वह जहाँ जाता है वहाँ (चारों दिशाओं में) वह जलता ही रहता है। जब अपने दुःखों पर विचार करके वह आगे बढ़ा तो सामने ही वह जलती हुई अग्नि में गिर गया चलते-चलते जब वह आगे आया, तो उसको अपनी योग्यता एवं शक्ति के अनुरूप एक छोटा सा गर्त (शरीर की उपाधि) प्राप्त हो गया। उसमें वायु का शरीर शीतल होकर समा गया, वह उसी में रचपच गया। एक आसक्ति को छोड़कर उसको दूसरे शरीर के प्रति आसक्ति भी खूब प्राप्त हुई। पवन की तरह मेरा भी मन सांसारिक सुखों की मदिरा में रचपच गया। इस प्रकार हमको पुनः दुःखों एवं सांसारिक क्लेशों में दग्ध होना पड़ा। हम चौरासी लाख योनियों में दग्ध होते हुए भटकते फिरे, परन्तु आनंद के हेतु भगवान एवं उनके प्रति प्रेम की ओर कभी अथवा किसी ने भी ध्यान नहीं दिया। जिस भगवान को छोड़ने के कारण हम जीव अनाथ हो गये, उसी को वह सर्वथा भूल गया है और उसके साक्षात्कार के उपयुक्त साधना पर वह अग्रसर नहीं होता है। वह परमतत्त्व जीव के हृदय (अन्तःकरण) में विराज मान रहता है, और (अज्ञान के कारण) वह पास होते हुए भी दूर ही रहता है। उस तत्त्व को पहचाने बिना जीव को आनंद कद भगवान किस प्रकार दर्शन दे सकते हैं। जिस परम तत्त्व के अभाव में जीव अत्यन्त दुःखी हुआ। सांसारिक कथाओं में जलते रहने वाले उस जीव को सद्गुरु ने राम तत्त्व से मिला दिया। राम तत्त्व का साक्षात्कार हो जाने पर जीव सहज स्वरूप में तदाकार हो गया। उस परम तत्व से वह क्षण भर को बिछुड़ा और फिर मायाजाल में फंस गया। उस प्रियतम को साक्षात्कार होने पर आनंद के बधाये गाये गये। और परमानद प्रभु के साथ दिन रात आनन्द के साथ (गाते हुए) व्यतीत हुए। जीवात्मा अपनी समस्त सखी सहेलियों (अन्त‌ करण की प्रेमानुकूल प्रवृत्तियों) को एकत्र कर लिया और वह हर्ष एव उल्लास