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ग्रन्थावली]
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(iv) चद अरु सूर रहे रथ खाँची—समभाव की अभिव्यक्ति देखें—

गुन-गंभीर-गोपाल मुरली कर लीन्हीं तबहिं उठाइ।
धरि करि बेनु अधर मनमोहन कियो मधुर धुनि गान।
मोहे सकल जीव जल-थल के सुनि वार्यो तन-प्रान।

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डुलति लता नहिं मरुत मद गति सुनि सुन्दर मुख बैन।
खग मृग मीन अधीन भये सब, कियो जमुन-जल सैन।

(सूरदास)

(२३)

भगति हेतु रांम गुन गांवै, सुर नर मुनि दुरलभ पद पांवै॥
पुनिम बिमल ससि मास बसंता, दरसन जोति मिले भगवता॥
चंदन बिलनी बिरहनि धारा, यूं पूजिये प्रांनपति रांम पियारा॥
भाव भगति पूजा अरु पाती, आतमरांम मिले बहु भांती॥
रांम रांम रांम रुचि मांनै, सदा अनद रांम ल्यौ जांनै॥
पाया सुख सागर कर मूला, जो सुख नहीं कहू सम तुला॥

सुख समाधि सुख भया हमारा, मिल्या न बेगर होइ।
जिहि लाधा सो जांनिहै, रांम कबीरा और न जांनै कोइ॥

शब्दार्थ—पुनिम = पूर्णिमा। बिलनी = बिल्व, बेल का फल। वेगर = पृथक। लाघा = लाभ प्राप्त किया।

संदर्भ—कबीरदास सच्चे भक्त का वर्णन करते हैं।

भावार्थ—भक्त जन भगवान की भक्ति की प्राप्ति के लिए राम के गुणों का स्मरण करते हैं और उस परम पद को प्राप्त करते हैं, जो देवता, सिद्ध जन एवं मुनियों के लिए भी दुर्लभ है। वसंत मास की पूर्णिमा के निर्मल चन्द्रमा के प्रकाश में भगवान की ज्योति के दर्शन होते हैं। बिरहिणी जीवात्मा ने भावनाओं का चन्दन एवं बेल-फल धारण किया और इस प्रकार अपने प्राणपति राम की पूजा की। भाव की पूजा की सामग्री है तथा भक्ति ही फूल-पत्ती हैं। इस प्रकार की पूजा करने पर जीवात्मा को आत्माराम की प्राप्ति हो गई। अब 'राम-नाम' के निरन्तर उच्चारण में ही मन लगता है और सदैव राम में लौ लगाकर आनंद का अनुभव करती है। जीवात्मा को आनन्द सागर के मूल स्रोत भगवान (भगवद् प्रेम) की प्राप्ति हो गई है। उस सुख की समानता में अन्य कोई सुख नहीं कर सकता है। मेरा यह सुख समाधि के सुख के समान है। अब मैं परमात्मा के साथ एकाकार हो गई हूँ और उनसे पृथक् नही होऊँगी कबीरदास कहते हैं कि इस आनद को वे ही जान सकते हैं—जिनको इसकी अनुभूति का लाभ हुआ है, अन्य कोई इसको नहीं जान सकता है।

अलंकार—(i) व्यतिरेक की व्यंजना—सुर नर.....पावे।
(ii) रूपकातिशयोक्ति—ससि, वसंता।
(iii) रूपक—भाव..... पाती।