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[कबीर
 


शब्दार्थ—आदम = आदि मानव। आदि = मूल तत्त्व।

सन्दर्भ—कबीरदास मानव के अज्ञान का वर्णन करते है।

भावार्थ—आदि मानव को मूल तत्व का ज्ञान नहीं हुआ। मानव जाति की माता हौवा कहाँ से आई? मूल तत्व की वह अवस्था थी जहाँ न राम था, न खुदा ही। भाई, उस अवस्था में शाखा, मूल आदि कुछ भी कल्पना नहीं है। वहाँ न मुसलमान है न हिन्दू। न माता का गर्भ है, न पिता का बिन्दु ही अर्थात् उस स्थिति में माता-पिता की भी कल्पना नहीं है। उस समय गाय न थी उसको मारने वाला कसाई नहीं था। तब भगवान के नाम पर हलाल करने का हुक्म किसने दिया? जीव अज्ञान में भूला हुआ उसकी खोज में दीन बना हुआ इधर-उधर भटक रहा है। उसको भगवत्प्राप्ति का मार्ग नहीं मिल रहा है। भक्ति के द्वारा भगवान से तादात्मय स्थापित करने से जीव में सद्गुणों का विकास होता है और उससे पराड्- मुख (विमुख) होने पर वे समस्त सद्गुण समाप्त हो जाते है। परन्तु फिर भी मानव अपनी जिह्वा के स्वाद (इन्द्रिय भोग) के वशीभूत होकर उसकी तृप्ति के लिए अनेक उपाय करता फिरता है।

अलंकार—(i) सभग पद यमक—आदिम आदि।
(ii) सम्बन्धातिशयोक्ति—आदम.... पाई।
(iii) गूढोक्ति—मामा.... आई।
(iv) वीप्सा—मा मा।
(v) वक्रोक्ति—विसमला.... फुरमाई।
(vi) विशेयोक्ति—भूले फिरे......न पावै।
(vii) पदमैत्री—व्यदू हिन्दू।

विशेष—(i) 'एकोब्रह्म द्वितीयों नास्ति' का प्रतिपादन है। मूल तत्त्व साश्लेष्टावस्था में रहता है। उसका विश्लेषण नाम-रूप अथच उपाधि का हेतु बनता है। द्वैत बुद्धि ही समस्त भेद एवं संघर्ष का मूल हेतु है।

(ii) जिभ्या स्वारथि—उपलक्षणा पद्धति से—इन्द्रियासक्ति।

(iii) भक्ति भाव का प्रतिपादन है। भगवान की कृपा द्वारा ही जीव को सद्गुण प्राप्त होते हैं। जब भगवान कृष्ण ने अपना वरदहस्त हटा लिया तो अर्जुन के गाण्डीव की प्रत्यचा शिथिल हो गई और उसके संरक्षण में जाने वाली गोपियों को साधारण भीलों ने लूट लिया था।

(२६)

जिनि कलमां कलि मांहि पठावा कुदरत खोजि तिनहूँ नहीं पावा॥
कर्म करौंम भये कर्तूता, वेद कुरान भये दोऊ रीता॥
कृतम सोजु गरभ अवतरिया, कृतम सो जु नाव जस घरिया॥
कृतम सुनित्य और जनेऊ, हिंदू तुरक न जानै भेऊ॥
मन मुसले की जुगति न जांनै, मति भूलै दीन बखानै॥