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[कबीर
 


सेवग सेव भुलानियां, पथ कुपंथ न जान।
सेवक सो सेवाकर, जिहि सेना भल मांन॥

शब्दार्थ—ताई = लिये। करता = करते हुए। विसरावा = भूल जाता है। भल मान = सुख का अनुभव।

सन्दर्भ—कबीरदास निस्स्वार्थ सेवा का प्रतिपादन करते हैं।

भावार्थ—जो त्रिभुवन पति ऐसे महान हैं उनका स्वरूप वर्णन किस प्रकार किया जा सकता है? भक्त गण तो केवल इसकी सेवा करने के लिए ही बनाए है। वे तो अपने स्वामी की विविध प्रकार से सेवा कर सकते हैं। सेवक को वही सेवा भक्ति करनी चाहिए जिसके बिना उससे रहा न जाए—अर्थात् प्रभु-भक्ति सदैव अहेतुकी होनी चाहिए। यदि प्रभु-सेवा करते हुए मुझे दुःख उठाना पड़े तो इस दुःख को सवा गुना सुख मान कर ग्रहण करना चाहिए। जो भक्त प्रभु सेवा मे सुख का अनुभव करता है, उसके लिए सांसारिक दुःख-सुख दोनों समाप्त हो जाते हैं, अर्थात् वह कर्म बन्धन से मुक्त हो जाता है। कबीर कहते हैं कि आजकल के सेवक प्रभु सेवा के महत्व का भूल बैठे है तथा पथ कुपथ का विवेक न करते हुए चाहे जिस साधना का अवलम्बन करने लगते है। भक्त तो वही है जो प्रभु सेवा में गौरव एव सुख का अनुभव करता है।

अलंकार—(i) गूढोक्ति—कहो धौं कैसा।
(ii) अनुप्रास—सेव सो सुख सुख, सेवक सेवा सेवा।
(iii) सभग पद यमक—पथ कुपथ।

विशेष—सेवा-भाव ही भक्ति का मूल आधार है।—समभाव देखे—

सो अनन्य गति जाकें मति न टरइ हनुमत।
मैं सेवक सचराचर रूप स्वामि भगवंत।

(३४)

जिहि जग की तस की तस के ही, आपै आप आथि है एही।
कोई न लखई वाका भेऊ, भेऊ होइ तौ पावै भेऊ॥
बावै न दाहिन आगै न पीछू, अरध न उरध रूप नहीं कीछू॥
माय न बाप आव नहीं जावा, नां बहु जण्यां न को वहि जावा॥
वो है तसा वोही जानै, ओही आहि आहि नही आंनै॥

नैनां वैन अगोचरी, शृवना करनी सार।
बोलन कै सुख कारनै कहिये सिरजनहार॥

सन्दर्भ—पूर्व पद के समान।

भावार्थ—संसार की जैसी भी रचना हुई है, वह केवल इसने ही (परमात्मा ने ही) की है। वह स्वयं उनमें आप विहीन हो जाता है। उसके भेद को कोई नहीं जान पाता है। उसका कुछ भेद हो तब तो कोई उसको प्राप्त करें